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फ़ुर्सत के पल, अनुपमा सरकार

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एक दिन, जिसकी शुरुआत भागदौड़ और ऊहापोह से हो, वो जब ढलते ढलते, इतना मधुर हो जाए तो मन अनायास कह उठता है कि “ओ सूरज, तेरी अगन से परे एक दुनिया और है, जहां बादलों के कारवां, शीतल छांह लिए आते हैं”

ज़िंदगी के छोटे मोटे मसले, और उनसे लड़ने भिड़ने की कवायद के बीच, “फ़ुर्सत के पल” को छापने से पहले एक हिचक थी मन में, थोड़ा डर भी.. सोचती रही, लिखे को किताब का रूप दूं तो जाने पाठकों को पसंद आए भी या नहीं..

पर, आज एक सुधि पाठक, संवेदनशील व्यक्ति और कुशल समीक्षक के रूप में प्रसून परिमल जी का नेह मिश्रित आशीष मिला, तो मन झूम उठा.. आप भी पढ़िए, फ़ुर्सत के पल को प्रसून जी की नज़र से ☺

प्रसून जी अपनी समीक्षा में लिखते हैं:

“…..क्षितिज पर नज़रें टिका सूरज और सागर का अभूतपूर्व मिलन बसा लेना चाहती हूँ आँखों में और चुपचाप, तपती रेत के छालों को बहा देना चाहती हूँ खारे सागर में….कुछ घाव नमक ही भर पाते हैं न…”

जब कहानी स्थूल घटना ,कथानक(plot), चरित्र की बहुलता को पीछे छोड़ उत्तरोत्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते सूक्ष्मतम की यात्रा पर निकल जाती है तो ‘ संवेदन ‘ के चरम को रच बैठती है जहाँ कोई ख़ास लम्हा ही नहीं ,जीवन के बेहद आम दीखते पल ही बेहद ख़ास हो सामने आ जाते हैं ,परिणामतः सामने आता है जीवन के हर ‘ कलेवर और फ्लेवर ‘ को शब्दों में समेटती ‘ फ़ुर्सत के पल ‘….जी ,वो ‘ फ़ुर्सत के पल ‘ जिसे अपनी पहली पुस्तक का नाम देते अनुपमा सरकार मन के हथकरघे पर ‘ जीवन ,दर्शन और कल्पना ‘ के तानेबाने से बुनती हैं।अनुपमा के लेखन की ख़ासियत जो मुझे बेहद आकर्षित करती है कि वह सामान्य पाठकीय अपेक्षा के अनुरूप कोई कहानी नहीं कहती बल्कि ,जीवन के बेहद साधारण से दीखते आम पलों और घटनाओं में वैसा दर्शन या विराट मनोविज्ञान ढूंढ लेती है कि उनका पाठक उन घटनाओं में अंतर्निहित संवेदनाओं से अपना व्यवहार और आचरण का सहज सह-सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से अनुपमा की कहानियों में ‘ कहन ‘ नहीं होता ,अपितु उनके ‘ कहन ‘ में दुनिया की तमाम कहानियों के नैसर्गिक सूत्र छुपे मिलते हैं…ऐसे कुदरती सूत्र जिसका साक्षात्कार एक आम- से-आम पाठक को भी उसे उसके जीवन की कहानियों का ‘ महानायक ‘ बना देता है क्योंकि अनुपमा कहानी रचती नहीं ,देखती हैं…उसमें अंतर्निहित दर्शन को पाठकों से जोड़ती हैं ,एक तादात्म्य स्थापित करती हैं।सर्वोपरि उन्हें पढ़कर ‘ एक आस जगती है मन में कि शायद उसपार कुछ नया हो….कोई तिलस्मी इंद्रधनुष जिसपर सवार हो बादलों के पार जाया जा सके ‘।

अंग्रेजी के बारह महीनों के नाम पर बारह खंडों में विभाजित/उपविभाजित और ‘ बारहमासा ‘ नाम की याद दिलाती यह संग्रह जनवरी से दिसंबर धीमी गति से आराम से टहलते ,अपने परिवेश को महसूस करते,बोलते- बतियाते चलते अनुपमा की ऐसी संग्रह है जिसमें जीवन है,उसकी व्यस्तता है , जीवन और उसके संगीत को बतलाती गहरी सांकेतिकता है —

“अक्सर हम खुशियों की प्रतीक्षा करते हैं ,पर उनके आगमन पर न जाने क्यूँ, छोटी-मोटी कमियों में उलझ कर रह जाते हैं….और जो जितना मिल रहा है,उसे भी खोने लगते हैं…।”

अनुपमा बार – बार अपने फुर्सत के पलों में स्मृतियों में जाती हैं क्योंकि वह मानती हैं-

” स्मृति की संकरी गलियों में सूरज कभी डूबता भी तो नहीं….”

तो क्या स्मृतियाँ व्यक्ति को ऊर्जावान बनाये रखती है ?कंप्यूटर और रोबोटिक्स के इस दौर में जहाँ हम मेमोरी बनाये रखने की जिम्मेदारी मशीनों पर छोड़ रहे ,वहाँ क्या हमारी ‘ छीजती ‘ स्मृतियाँ मानव जीवन को निस्तेज कर रही? ऐसे प्रश्नों को परोक्षतः उभारती अनुपमा मुझे एक नया और ज़रूरी विमर्श भी छेड़ती नज़र आ रही..।

संग्रह महज़ रोमैंटिसिज्म ही सृजित कर रही ,ऐसा भी नहीं बल्कि शहरी जीवन शैली की कई विडंबनाओं , सेल्फ़ी दौर की आत्ममुग्धता , शहरी प्रदूषण के साथ- साथ सियासी चालों तक की पूरे साहस से पड़ताल करती है , मसलन —

“….और आदमी भूल जाता है कि किसी बेक़सूर को मारने से न कभी कोई क्रांति आई है ,न किसी का भला हुआ है।केवल सियासतें पलटी जाती हैं। ”

हालाँकि अनुपमा पलों की ख़ासियत जानती हैं ,वह कहती हैं –
“…पलकों के गिरने और उठने के अंतराल में ही दुनिया बदल जाया करती है..” पर , जीवन की आपाधापी के विरुद्ध वह चेतावनी ज़ारी करने से भी नहीं चूकती —
” …क्या ज़ल्दी है ,जीवन के एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक छलाँग लगाने की…”

अन्ततः अमेज़ॉन पर मात्र निन्यानवे (एक सौ से भी कम) रुपये में उपलब्ध यह e- book अपने पाठकों के मन में हिंदी साहित्य के भविष्य को ले न केवल ‘ एक मुट्ठी आसमाँ ‘ मन के भीतर सहेजती प्रतीत होती है ,अपितु फैले अंधकार में तारों की हल्की- सी चमक भी आँखों में शेष रहने की आशा जगाए रखती है….आमीन !!! ** प्रसून परिमल **

“फ़ुर्सत के पल” amazon kindle पर मौजूद है.. आप इस लिंक पर क्लिक करके किताब खरीद सकते हैं


किंडल बुक्स

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बचपन से ही चाव रहा पढ़ने का.. मम्मी की लाई कॉमिक्स हों, नन्दन, चंपक, सुमन सौरभ हो या कादम्बिनी और सोवियत नारी.. हर बार कुछ नया ढूंढ लेता था मन और मैं भाव विभोर हो उन कहानियों को अपने दोस्तों को जस का तस सुनाने बैठ जाती.. तब किसने लिखी, कहां पढ़ी, से कहीं ज़्यादा इस बात का ख़्याल रहता कि दिल को कैसी लगी!

कुछ बड़ी हुई तो टैगोर, शरत चन्द्र, तोलस्तोय की दुनिया से परिचय हुआ, तब तक भाषा शिल्प शैली से भी मन प्रभावित होने लगा था.. पर हां, तब भी और अब भी, दिल को कैसी लगी, मेरे लिए सबसे ज़रूरी बात रही.. नामी लेखकों की बहुत सी किताबें आधे में छोड़ दीं तो एकदम अनजान राइटर्स को डूब कर पढ़ा.. हिंदी में कुछ कम, अंग्रेज़ी में कुछ ज़्यादा, पर कहानियां तो कहानियां, भावों में डूबी रही..

दो रुपए में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का कार्ड बनवाकर जाने कितनी ही किताबें पढ़ीं.. फिर ऑनलाइन शॉपिंग और बुक फेयर के चलते भी ढेरों किताबें घर में आने लगीं.. धीरे धीरे कलेक्शन बढ़ा तो जगह की कमी और देखभाल की मुश्किल ने अपना सर उठाया.. कबाड़ी को देने का मन करता नहीं था, पर हारकर बहुत कुछ टके के भाव बेचा.. हालांकि एक कोशिश की थी, लाइब्रेरी में देने की, पर वो साधारण किताबों में इंटरेस्टेड थे नहीं और अमूल्य एडिशन मेरे पास नहीं थे.. सच कहूं, तब दुख हुआ था.. खरीदना, पढ़ना और फिर बन्द करके धूल में रखना या बेच देना, भाता नहीं था..

अब पिछले 4-5 सालों से एक प्रेक्टिस अपनाई है, किताबों को किंडल पर पढ़ने की.. ऑफिस जाते हुए, कोई paperback नहीं बल्कि फोन पर पढ़ती हूं.. घर आकर टैबलेट पर या फोन पर ही कंटिन्यू करना और जहां जो वाक्य पसंद आया, उसे हाईलाइट करके या टाइप करके सोशल मीडिया पर share करना, धीरे धीरे आदत में शुमार हो चला है.. अब बहुत चुनिंदा किताबें खरीदती हूं, बाकी सब वहीं किंडल पर.. 169 रुपए महीने के खर्चे और amazon prime की बदौलत Kindle पर 10 किताबें मेरी लाइब्रेरी में हर वक़्त इठलाती हैं!

जब अपनी किताब (जनवरी में Don’t Hate The Don’ts) और (जून में फ़ुर्सत के पल) पब्लिश की, तो भी वहीं kindle पर.. आख़िर जानी पहचानी मंज़िल ही तो खोजते हैं हम सब..

और फिर खरीदने में बेहद आसान है , सिर्फ ऑनलाइन पेमेंट करके, डाउनलोड ही तो करना है.. और पढ़ने में भी मुश्किल नहीं.. आते जाते, खाली वक्त में जैसे एफबी पर पोस्ट्स पढ़ीं, लगभग वैसे ही किताब भी पढ़ी.. आजकल के व्यस्त जीवन में खरीदने और पढ़ने के लिए अलग से समय निकालना भी तो दूभर ही हो चला.. और फिर physical books की तुलना में तो ebooks की कीमत भी बहुत कम..

हालांकि एकदम फ्री किताबों की पक्षधर नहीं हूं.. मेरा मानना है कि जो किताबें खरीदकर पढ़ी जाएं, उनकी तासीर ही अलग होती है.. पर वहीं बहुत ज़्यादा कीमत रखने के पीछे की मंशा भी मुझे कम ही समझ आती है.. सो मेरे लिए तो 49, 99, 149 में मिलती किताबें मानो मुंह मांगी मुराद.. न दिल पर बोझ न जेब पर.. और अगर प्राइम मेंबर हों तो जितना मन में आए, बस उतनी ही पढ़ो, फिर एक नई वाली, आखिर ज़बरदस्ती तो इस मन को कतई नहीं भाती न!

जीवन के हर मोड़ पर शब्दों से मुलाकात कुछ अलग ही रही है.. पर हर बार, उतनी ही भाव विभोर हो उठती हूं, जितनी कभी बचपन में हुआ करती थी.. बस अब लेखक का नाम याद ज़रूर रहता है, उनके लिखे से अपनापन उनसे भी जोड़ देता है न! अनुपमा सरकार

Love is Hell

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हमारी कंट्री में दो लोगों के साथ होने के फैसले से इतने लोग व्यथित, पतित, ग्रसित हो जाते हैं, कि नो वंडर, तीन चौथाई आबादी, चुपचाप परिवार की मर्ज़ी से शादी करके, ताउम्र, दूसरों की ज़िंदगी में एक्साइटमेंट तलाशती फिरती है..

किसका किस से चक्कर, किसका किस से झगड़ा, किसने किसको कैसे उल्लू बनाया, इत्यादि इत्यादि इत्यादि.. फिल्म और सीरियल ही नहीं, रियल लाइफ में भी तो गॉसिप चाहिए न.. अब हम न्यूज़ के नाम पर देश दुनिया की खबर कब तक सुनें!

वैसे भी जिस देश में विलेन का नाम “प्रेम” हो और एक पूरी जनरेशन तक बॉलीवुड मूवीज़, बिना रेप/मोलेस्टेशन के पूरी न हुई हों.. जहां फिल्मी पर्दे पर “प्रेम” नाम का हीरो, रियल लाइफ में हर गर्लफ्रेंड के साथ abusive रहा हो.. जहां दूसरे घर की लड़की “हंसी तो फंसी” और अपने घर की लड़की के “चक्कर” में “नाक कटने” का अंदेशा रहा हो, वहां भाई, कहां का प्रेम, कहां की भावनाएं और कहां की ख़ुशी..

दो लोग शादी कीजिए, घर वालों को पोता पोती, नाते नाती का सुख दीजिए.. इतना भर काफ़ी है.. हां, “नैन मटक्का” वगैरह करना ही हो तो, ज़रा घर से दूर जाकर करिए.. पहचान वालों के सामने तो शराब सिगरेट ही तौबा तौबा!

मन में कितना ही मैल हो भाई, कमीज़ साफ़ दिखनी चाहिए बस! हम इंडियंस इत्ते में ही खुश हो जाते हैं.. आखिर पढ़े लिखे हैं, अनपढ़ गंवार थोड़े ही, ज़िम्मेदारी और ख़ुशी में अंतर जानते हैं!! अनुपमा सरकार

Hypocrisy wins in Indian Society. Love may go to hell or rather Love is Hell here…

यह कहानी नहीं, अमृता प्रीतम

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कभी अचानक आप कुछ ऐसा पढ़ बैठते हैं कि मन के किसी कोने से आवाज़ आती है कि कैसे लिखा होगा उसने ये सब.. क्या सिर्फ मलाल, क्या सिर्फ याद, क्या सिर्फ पछतावा या फिर बस ज़िंदगी!

बात कर रही हूं अमृता प्रीतम की लिखी “यह कहानी नहीं” की.. जी, यही नाम है इस कहानी का.. जहां अ और स, मिलते हैं, बातें करते हैं, सपने देखते हैं और फिर बिछुड़ जाते हैं, बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने.. शायद उनके मन समझते हैं पर मौन रह जाते हैं..

अ विवाहिता है, एक बच्चे की मां भी.. स पर कोई बन्धन नहीं, और अ को अपना बन्धन तोड़ने से ऐतराज़ नहीं.. पर फिर भी स कभी अ को ऐसा करने के लिए कहने की हिम्मत नहीं कर पाता और अ बिन स के ऐसा कहे, कुछ कर नहीं पाती..

दोनों अपनी अपनी ज़िंदगियां जीते चलते हैं, कर्तव्य निभाते हुए.. नियति उन्हें एक दूसरे से मिलने के बराबर मौके देती है, पर वे कभी अपने ख़्वाब को हकीकत में ढाल नहीं पाते.. कारण शायद कुछ और नहीं, बस खुद पर अविश्वास और साथी की अधिक चिंता..

अमृता प्रीतम की इस कहानी को पढ़ते हुए, बहुत ही आसानी से समझा जा सकता है कि वे अपनी और साहिर की ही दास्तां सुना रही हैं.. उनके दिल में दबी बुझी वो चिंगारी, जो कभी मुकम्मल रिश्ते का जामा ओढ़ न पाई, उसे एक अफसाने में ढाल रही हैं.. क्यों, कैसे, किसकी गलती, किसकी ख़ामी, कौन जाने पर हां अंत वही है, एक अधूरा रिश्ता, जो सड़क पर मिला और घर तक न पहुंचा..

इस कहानी में सड़क और घर के बिम्ब को बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.. हर बार दोनों टकराते हैं.. लोग उनकी मुलाक़ात को सहज होकर नहीं देख पाते, पर वे दोनों एक दूसरे के साथ होने को छुपाना ज़रूरी नहीं समझते.. एक अजब सी तनातनी है, जहां दोनों में झिझक बातों को लेकर नहीं, रिश्ते को अमली जामा पहनाने को लेकर है..

कैसे दो दिल, एक ही बात चाहते हुए भी, एक दूसरे की पहल के इंतजार में, सारी उम्र गुज़ार देते हैं, उस बेमतलब की जद्दोजहद, उस अदृश्य द्वंद्व को लेकर है.. कहानी एक मोड़ से दूजे मोड़ तक, दोनों को साथ लिए चलती है और फिर एक सपाट सड़क पर खत्म हो जाती है.. ठीक वैसे ही जैसे उनके जादू का घर, पत्थर चूने की बहुतायत के बावजूद, कभी खड़ा नहीं हो पाता!

वैसे कितनी ही बार होता है न कि फैसला लेने में इतनी देर हो जाए कि फैसला लेने की इच्छा ही खत्म हो जाए, कुछ ऐसा ही भाव बिखरा है इस कहानी में, जो मुझे सचमुच कहानी नहीं, लेखिका की अपनी दास्तां लगी..

एक बार को लगा कि नायक नायिका को अ और स कहने की बजाय, नाम दिए जाते तो बेहतर होता.. पर फिर दिल ने दूसरे ही पल ये ख़्याल झटक दिया, कभी कभी अनाम छोड़ देना ही बेहतर होता है.. हालांकि ज़िंदगी कितनी अधूरी और मौत कितनी पूरी है, ये भी हमें ठीक से कहां पता.. फिलहाल तो बस एक कहानी जो कहानी नहीं के, रस में डूब उबर रही हूं.. ये असर शायद देर तक रहेगा.. अनुपमा सरकार

A Game of Thrones, George RR Martin, Book 1

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A Game of Thrones by George R. R. Martin is the first book in the Song of Ice and Fire Series, I read recently.

However, before I purchased the books, I watched the entire HBO Original Series of the same name i.e. Game of Thrones. It is one of the most famous TV shows of all time and has recently been concluded. The finale, however left the fans a bit disappointed and I personally felt that the directors did a botched up hurried job of ending the series, while reaching the pinnacle of success with earlier seasons. Anyhow, written world is always more engrossing and intriguing than the visual medium. So the book reader in me gave a high five to the visual critic and I decided to bite the bullet by purchasing the entire series!

As of now, five parts of A Song of Ice and Fire have been published in seven volumes, and only the first book bears the name similar to the TV Series, A Game of Thrones. It is the most apt name for the first book, as the entire story revolves around the strategy, play and politics required for winning, grabbing and retaining the Iron Throne, the high seat of Seven Kingdoms, situated in King’s Landing. And as gory as it may look, as the House Baratheons, Lannisters, Starks and a dozen other Lords fight with each other, verbally, physically, emotionally and financially, I couldn’t shake off the feeling, that all these battles, skirmishes, alliances and deceit are nothing but a game for the players, and the common folk are the dispensable mute, dumb lifeless pawns!

However, this game is played so intently and superbly that I couldn’t help but admire the writer’s imagination and thinking prowess.

Be it the characters, ranging from stern Eddard Stark to gluttonous Robert Baratheon to nimble footed foul thinking Queen Cersei to witty dwarf Tyrion Lannister to hot headed brave Jamie Lannister to cruel but courageous Dothraki and foolhardy Viserys Targaryen; there is no dearth of variety in the valor, values and traits of these characters.

Also, there are many parallel stories that run in the Game of Thrones, in different settings, at the same time, and yet the transition between them is so smooth that I could hardly put down the book. The lands range from frozen walls to hot geysers to river plains to red waste of Dothraki lands. And their residents are as numerous and colorful as the lands. And, to the credit of George RR Martin, he is still able to do justice to almost all of them.

While these variegated lands, people, kings, lords and wildlings jostle with each other, the genius writer sticks to the basics of presenting an engaging story in a lucid manner. And, to add complexity to the novel, some peculiar notions are also followed to a tee by the author. I can’t help but admire his ingenuity in adopting a numerical pattern in the story. Seven is the magical number here. There are Seven kingdoms, Seven important Houses, Seven New Gods, the church called Septon is a building of seven corners. Even the family members of Stark, Baratheon and Lannister are seven! I haven’t counted the seas yet, but probably they will be seven too and of course, so far five books have been released, two more are to come in future. And, most probably the entire series will be rounded off in Seven books, though volumes are going to be definitely more.

Closer home, I have noticed Chetan Bhagat, sticking to numbers too, though it is mostly related to titles than anything else, Five Point Someone, Revolution 2020, Three Mistakes of My Life, Two States, A Night at Call Centre with Half Girlfriend, completing the circle!!

Though, the planning plotting of A Game of Thrones runs much deeper than numbers. Each House has a sigil, prominently featuring their natural inhabitant and in line with their ideology, Direwolf for Starks, Stag for Baratheon, Lion for Lannisters, Fishes for River and Dragons for Targareyns, are a few cases in point. In addition, all of them have a motto that well explains their intentions and beliefs.

Their respective castles are also built focused on their natural strengths. Winterfall is cold and arid, and the castle is made above hot geysers, with hot water circulating within its walls for comfort. The Riverrun makes full use of the rivers, moats and boats for its power, whereas Dothraki draw strength from their vast wild grass plains, to feed their horses and live a plundering yet comfortable life. All this may sound logical and easy, but I would like to draw your attention to the writer’s striking ability to think and create such diversity.

Even the languages spoken are different though here George RR Martin slightly falters. He makes them communicate in plain English, only indicating the language, while not using actual words. On this point, the TV series scored. They made the characters especially Dothrakis and Daenerys use the language emphatically. Of course, it is easier done in a visual medium than in written world but is not impossible. And I would have loved Martin use different languages more efficiently.

While dwelling on the shortcomings, Martin is not really good in describing emotions, expressions and feelings of the characters. Also, his description of Nature is limited to a few choice phrases. Metaphors and similes are few and oft repeated, a finger being most prominent, a finger of sunrays, a finger of sweat, a finger of muddy waters etc etc. However, as the story is intriguing, keeping reader’s mind in momentum, these limitations do not spoil the reading experience.

All in all, A Game of Thrones by George RR Martin has more positive points and makes for an impressive read. Go for it if you have watched the TV show and loved it and definitely read this if you haven’t watched but would love to grab a fantasy fiction.. Anupama Sarkar

आपका बंटी, मन्नू भंडारी

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एक छोटा सा बच्चा बंटी, शायद 9 साल का.. माता पिता एक दूजे से अलग रहते हैं.. वह ममी के साथ रहता है, उन्हीं के लिए जीता है, आखिर उसके मन में ठूंस ठूंस कर भर जो दिया गया है कि राजा बेटा वही जो मां के लिए कुछ भी कर गुज़रे, राजकुमार की तरह समुद्र पार कर जाए, उनके दुख को दूर करे, ख़ुशी का ख़्याल रखे.. ये बातें उसे रोज़ कहानियों में घोलकर पिलाई जाती हैं.. और जाने अनजाने नन्हा बालक, अपनी ममी के लिए अनुपस्थित पिता का अक्स बन जाता है..

ममी का नाम शकुन, पिता अजय.. दोनों ही अपने करियर में सुलझे हुए.. शकुन प्रिंसिपल है और अजय डिविजनल मैनेजर.. एक तरह से दोनों अपने विभाग के ज़िम्मेदार अधिकारी, सर्व समर्थ.. पर दोनों ही अपने निजी जीवन में उतने ही उलझे हुए, तुरत फुरत निर्णय लेने वाले, और कहीं न कहीं अहम के चलते, परिस्थितियों को उलट देने की गलती करते हुए..

कहना बहुत आसान है, पर शायद जीते हुए समझना बहुत मुश्किल.. यही कारण कि इन तीनों में से कोई भी अपनी धुरी पर कायम नहीं, तीनों एक दूजे से टकराते हैं, तूफान लाते हैं और फिर अपनी अपनी दुनिया में उलट पुलट जाते हैं..

जितनी आसानी से ये सब लिख रही हूं, शायद उतना ही मुश्किल रहा होगा मन्नू भंडारी के लिए, अपने किरदारों को इस दिल तोड़ने वाली कहानी में पिरोना और एक एक कर के, बंटी के जीवन से खुशी, उम्मीद और संतुलन दूर करते जाना.. आखिर ये नॉवेल, शब्दों से कहीं परे, भावनाओं के जखीरे पर जो डूबता उबरता है..

मन्नू भंडारी, हर अध्याय में बंटी के दिल की बातें, उसकी सोच, उसके सपने, उसके ख्याल, शब्द दर शब्द उकेरती चलती हैं.. बाग़वानी का शौकीन, पेंटिंग बनाता कलाकार, बिना किसी से डरे, अपने मन की बात कह देने वाला, अति संवेदनशील बच्चा, जो बिन कहे भी जानता समझता है कि आस पड़ोस वालों की नज़र में वो और उसकी ममी, एक अलग ज़िंदगी जीते हैं, बिना पापा के, घर में किसी पुरुष की उपस्थिति के बिना रहते हैं..

कहानी की शुरुआत में ही बंटी बखूबी समझता है कि उसकी ममी शकुन के पास कई चेहरे हैं.. प्रिंसिपल वाला चेहरा, ममी वाला नरम मुस्काता चेहरा, और पापा के न होने से उदास खिन्न चेहरा.. एक छोटा सा बालक किस तरह बिन कुछ कहे ही, मां के दिल का हाल जानता समझता है, ये सब पहले कुछ अध्याय में ही साफ़ होता चलता है..

पर क्या ऐसा होना नॉर्मल है? क्या एक बच्चे का अपनी मां के सुख दुख की चिंता करना, उसे खुश करने की कोशिश में समय से पहले बचपन खो देना सहज सरल है? आइडेंटिटी क्राइसिस, कॉडिपेंडेंसी, प्रॉब्लम चाइल्ड, जैसे शब्दों के इस्तेमाल के बिना भी, ये साफ़ साफ़ झलकता है, कि बंटी की ज़िंदगी अबनॉर्मल है..

उस पर शकुन के शादी के फैसले के बाद तो, बंटी सच्चाई और कल्पना में अंतर करने की क्षमता ही खो बैठता है.. पहले चैप्टर का हंसता खेलता, कहानियों किस्सों में जीने वाला बंटी, आखिरी चैप्टर में कुछ यूं दम तोड़ता है कि आपके आंसू तक नहीं निकलते.. सारे तो खर्च हो जाते हैं, उसकी हर शरारत, ध्यान खींचने के डेस्परेट अटेम्प्टस पर, और शकुन की हर हरकत, उसकी नासमझी इंगित करती हुई आगे बढ़ती चली जाती है..

शुरुआत में जब तीसरे अध्याय में, मन्नू बंटी की बजाय, शकुन की दृष्टि से कहानी सुनाती हैं, तो मुझे लगा था कि इस किताब में बाल मन और स्त्री मन, दोनों की बखिये धीरे – धीरे उधड़ेंगी, पर जल्द अहसास हुआ कि शकुन भी मन से बंटी ही है, कभी मेच्योर हो ही नहीं पाई.. उसकी अजय के प्रति कटुता, दोनों की तनाव भरी शादीशुदा ज़िंदगी, अकस्मात तलाक़ और फिर अजय और शकुन, दोनों का मीरा और डॉ जोशी से शादी कर लेना, कहीं कभी कोई भी फैसला सोच समझकर नहीं लिया गया.. बस अहम और ज़रूरतों की पुष्टि भर रहा और उसमें साथ में पिसता चला बंटी.. उसकी फूफी, पुराना घर, बाग, स्कूल, शहर सब उस से एक एक करके छीन लिया गया.. और उसके माता पिता, परिपक्व बड़ों की तरह सोचते सोचते भी बस एक दूसरे से खीज निकालते हुए, बंटी को पीछे छोड़ते चले गए..

लेखिका ने अपने वक्तव्य में ही साफ किया था कि वे यह कहानी, सिर्फ बंटी के दृष्टिकोण से लिख रही हैं, क्योंकि वही अपनी और अपनों की ज़िंदगी में सबसे गैर ज़रूरी तत्व है.. और किताब ख़तम होते होते मुझे यकीन हो चला है कि ये कहानी, किसी और एंगल से लिखी ही नहीं जा सकती थी, क्योंकि सभी किरदारों और यहां तक कि हम सब पाठकों के दिल में भी कहीं न कहीं, कभी न कभी, एक आहत बंटी छुपा है.. वह कुलबुलाता हुआ कभी आंसू के रूप में, तो कभी निराशा और कभी गुस्से के रूप में बाहर दिख ही जाता है..

सलाम मन्नू भंडारी की कलम को, जो इतनी सहजता से सोच के उफनते दरकते दरिये को, शब्दों और कहानी के फ्रेम में बांध पाईं, मैं तो अब तक केवल डूब उबर रही हूं और किताब ख़तम होने के बाद भी चुपचाप बैठी सोच रही हूं, क्या सचमुच अंत यही है.. या फिर ये केवल शुरुआत है, बंटी के भविष्य की, एक और बच्चे के वयस्क होने पर भी कसमसाते रहने की!

कहने लिखने को बहुत कुछ है, पर भाव भाग रहे हैं, सो फिलहाल इतना ही.. बस इतना कहूंगी कि ये कहानी सिर्फ तलाक़शुदा घरों की नहीं, बल्कि हमारे समाज के लगभग हर परिवार की कहानी है.. हमारे यहां बच्चों की आवाज़ को अनसुना कर देना अनकहा नियम जो ठहरा और बचपन से ही लड़के को ये कहकर शर्मिंदा करना कि क्या लड़की की तरह रोता है, एक अजब सी रिवायत!

इस किताब में बहुत परतें हैं, धीमे धीमे उतरती हैं, नज़र से खेल खेलती हुई.. पढ़ने पर केवल पढ़कर नहीं छोड़ पाएंगें, कहीं भीतर ले बैठेंगे बंटी को.. और फिर लगेगा कि शीर्षक कितना सार्थक हो आया है, बंटी ने ये चिट्ठी आपके ही नाम तो लिखी है, आपका बंटी कहकर.. अनुपमा सरकार

इंसान या मशीन

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हम सब अपनी अपनी परिधि में सिमटे हुए ज़िंदगी को देखा समझा करते हैं.. कभी हालात ज़रा सा बदलें तो हालत ख़राब होने लगती है.. बड़ा मुश्किल हो जाता है, किसी और के नज़रिए से देख पाना, समझ पाना हालांकि हमें मौके भरपूर मिला करते हैं.. इतवार को 12 घंटे की ड्यूटी करते हुए, गरमी, उमस झेलते हुए और बेहद अनकंफर्टेबल कुर्सी पर सारा दिन कमर तोड़ते हुए, बहुत वक़्त मिला कल, इस बारे में सोचने के लिए..

जो काम मेरे लिए कभी कभार की मजबूरी बना हुआ है, वो बहुतों के लिए जीवनयापन का तरीका है.. हमारे देश में अब ऑनलाइन एग्जाम होने लगे हैं.. काग़ज़ पेंसिल नहीं सीधा कम्प्यूटर पर अपनी प्रतिभा का परिचय देना, नया शगल ज़रूर है.. पर इसने आश्चर्य चकित रूप से, देश के रोज़गार को भी नया मोड़ दिया है..

बात एग्जाम देने वालों की नहीं, बल्कि वहां मौजूद प्राइवेट इन्विजिलेटर्स की कर रही हूं.. बमुश्किल 20-22 साल के लड़के लड़कियां, जो रोज़ किसी न किसी ऐसे ही ऑनलाइन exam के दौरान, वही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो किसी ज़माने में अनुशासन प्रिय शिक्षकों की हुआ करती थी.. शायद खुद पढ़ाई करते हुए, ये लड़के लड़कियां उन्हीं शिक्षकों से डर में रहा करते होंगें.. पर ज़िंदगी एकदम से 360 डिग्री के टर्न पर, इन्हें वहीं खड़ा कर गई है

हालांकि पैसे बहुत कम मिलते हैं उन्हें, पर फिर भी रोज़गार का एक ऐसा अवसर मिल रहा है, जो शायद कुछ सालों पहले हमने सोचा भी नहीं था। शाम होते होते मैं उनमें से कुछ से बात करते हुए ये समझने की जुगत में थी कि रोज ऐसी ड्यूटी करती हो, तो घर कैसे संभालती हो.. जवाब सीधा सरल था, आदत हो चली है, हालांकि इतनी लंबी duty नहीं होती, बाकी कंपनीज़ तो दो शिफ्ट ही करवाती हैं, पर फिर भी, सुविधाओं की कमी, 250 कम्प्यूटर होते हुए भी लैब में सिर्फ पंखे होना, खिड़कियों को सुरक्षा की दृष्टि से सील किए रखना और वेंटिलेशन का कोई और इंतजाम न होना, उन्हें भी खलता बहुत है पर कुछ पैसों की चाहत में सब दब जाता है..

अहसास हुआ कि घर जाकर भी इन्हें कोई खास सुविधाएं नहीं मिलने वाली, बस चक्की में पिसे जाना है.. हमने औरतों के लिए रोज़गार के नाम पर तरक्की ज़रूर की है, पर समाज में, परिवार में उनके लिए कोई ख़ास परिवर्तन नहीं.. कभी कभी लगता है दोहरी मार झेल रही हैं आज की कामकाजी महिलाएं..

ख़ैर एक लंबे दिन ने ख़तम होते होते भी, परेशानियों से पीछा नहीं छुड़वाया था.. 12 घंटे की ड्यूटी के बाद, 10 मिनट का मेट्रो तक मार्च, कीचड़, गारे, नाले को पार करते हुए अभी बाकी था.. कारण वो रात भर की बारिश, जिसने ओवर फ्लोइंग सीवर सिस्टम की बांध तोड़ रखी थी.. सड़कों पर लगा हुआ लंबा जाम, मुझे कैब की बजाय मेट्रो से जाने के लिए भरमा रहा था, तो फिसलते पांव देख देख, दिमाग गुस्से में बडबडा रहा था.. सच मानिए, उस 10 मिनट की वॉक के बाद मुझे मेट्रो की escalator, स्वर्ग का आनन्द देती लगी..

पर फिर एक बार, थके हारे चेहरों वाले अपार जनसमूह का हिस्सा बनते हुए कहीं एक कसक उठी, कि ये भीड़ भी कहीं न कहीं मज़दूरी करके लौटते हुए लोगों की ही है.. विकास के साथ साथ, ऊपरी तौर पर टेक्निकली हम एडवांस हो चले हैं, पर अंदर से शायद खोखले हुए जा रहे हैं.. इस पूरे दिन में एक बार भी, मुझे वो बहकती महकती हवा, महसूस न हुई, जिसने कल दिल्ली के मौसम को खुशगवार बना रखा था.. बस पूरा वक़्त थकान के बोझ तले zomby सरीखी जीती रही..

पर प्रकृति तो ठहरी मनचली, मेट्रो की ग्रीन लाईन से ब्लू लाइन तक, ओपन walkway का इस्तेमाल करते हुए, मखमली आसमां ने अपनी तरफ खींच ही लिया.. चाल धीमी करके, उस आकाश को तकती रही.. मोबाइल निकाल कर फोटो लेना मुश्किल लग रहा था, फिर सोचा, छोड़ो परे कैमरा, आंखों और दिल में भर लूं इस नज़ारे को, तो भी क्या बुरा.. जीने की हिम्मत दे रहा है मुझे..

कुछ पल बाद, फिर एक बार मेरे सामने उदास निर्विकार चेहरे घूम रहे थे, जिनका हिस्सा मैं भी थी.. घर लौट कर लगा, जैसे एक मुखौटा चढ़ा है मुझ पर.. कितनी खीझ, थकन और खालीपन.. और फिर अचानक महसूस हुआ कि ऐसे में परिवार के सपोर्ट की कितनी ज़रूरत.. मशीनों के बीच आप मशीन बने रह सकते हैं पर घर पर भी उसी मोड में जीना किस क़दर तोड़ देता होगा.. और मेरी नज़रों के सामने फिर वही एग्जामिनेशन हॉल में बैठी लड़की घूम रही थी, जिसका साल भर का बच्चा, घर में इंतजार कर रहा है, उसके मशीन से मां बन जाने का..

सच ज़िंदगी कई चेहरे लिए बैठी है, बस बात नज़र और नज़रिए की है.. फिलहाल एक लंबे दिन के बाद थकी थकी मैं, शब्दों में सुकून तलाशती हुई.. अनुपमा सरकार

Clash of Kings, George R R Martin

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A Clash of Kings by George R R Martin is the second book in the series of A Song of Ice and Fire. I have already reviewed the first book, HBO show and the finale and before moving on to the next book, I would like to talk about the second.

In true essence of its name, A Clash of Kings depicts the head on collision of the wannabe Kings of Seven Kingdoms. There are no less than four kings featured here, Robb Stark, Stannis Baratheon, Renly Baratheon and Joffrey, not to mention the growing ambitions of Daenerys Targaryen to claim Iron Throne!

However, I am running ahead. The sad concluding events of the first book; death of King Robert, execution of Ned Stark, killing of Viserys and Khal Drogo, indeed paved path for the story to take a dramatic turn. While the TV show and the first book were almost similar, barring a few details; the second book is much much different.

Here, Tyrion Lannister is portrayed as courageous on battlefields as sarcastic and witty, he is in the Court. He is the Hand, Joffrey hates, but has to accommodate. He is the bane Tywin and Cersei suffer, but have to endure. And he is the one who makes a difference in the monstrous world despite his bad looks.

And then there is Stannis Baratheon, the serious somber just and cruel man, who has an excessive sense of hurt and entitlement. Stannis has a deep rooted sibling rivalry with his younger brother Renly. He feels that Robert did him grave injury by making Renly the Lord of Storm End, and after the death of Robert, he is the rightful king. His ambition is further fueled by Melisandre, a priestess of Lord of Light. She proclaims him the chosen one and aided by her magical dark powers, Stannis plans to take on the world.

Renly, on the other hand considers himself as the right candidate on account of his popularity. He is also able to sway a prominent rich House Tyrell by marrying their maiden daughter, Margaery. With money, resources, swords and beauty rallying behind him, he is ready to face both Joffrey and Stannis.

In the red waste, Daenerys is moving the Dothraki clan to claim the Iron throne, being the last Targaryen. Her adventures in different cities and her mighty dragons make for an engrossing story, with Martin ably switching the plot between the land, sea and river with ease.

I had noticed a few limitations in Martin’s prose in the previous book, however, he has improved by leaps and bounds in this volume. His description of nature is more vivid, expressions more lively and his creation of battle scenes fantastic. The Blackwater battle is narrated in the most engrossing manner. Reading the description, I could imagine every scene and it was way more impressive than what I saw on the show. It is always easier to create war scenes on visual medium, words often fail to communicate finer nuances of the high adrenaline action. However, here Martin proved me wrong. He was able to devise new strategies and then able to create the dramatic effect of Wildfire on ships.

My second objection was that Martin only talked about using different languages, but didn’t use any different words. Here he did create a few new ones, for the Braavosi and Valyrian tongues. But, even more interesting was his twist on the usual words, coining new words out of the existing ones, such as mayhap, happenstance etc, quork, turncloak etc. And so was his ingenuity in naming the places. Oxbridge, Dreadfort, Storm End, Red Fork are few among the many, these are nothing but an extension of their locations or use and make for an interesting read.

In short, I am more than satisfied with Martin’s narration in the present book. The storyline is extensive, characters are interesting and the plot is building up with each turn of the page. Super excited to begin the third now.. Anupama Sarkar

Complete set of Song of Ice and Fire on Amazon


आर्टिकल 15

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बहुत कम होता है कि मूवी देखूं और कुछ कहने लिखने को मन न मचले.. क्या अच्छा लगा क्या बेकार, किसकी एक्टिंग अच्छी थी, स्क्रिप्ट कैसी थी, सेटिंग और किरदारों की जुगलबंदी काम की थी या नहीं, वगैरह वगैरह..

पर आज एक ऐसी फिल्म देखी, जिसके बाद मैं चुप हूं, क्योंकि स्तब्ध हूं.. इसलिए नहीं कि ऐसा होता है, नहीं पता था.. बल्कि इसलिए कि ऐसा होता है और इतनी आसानी से उसे स्वीकार कर लिया जाता है, मानो कुछ हुआ ही न हो, ये नहीं पता था..

तीन बच्चियों का गैंग रेप, क्योंकि उन्होंने अपनी मजदूरी में तीन रुपए की बढ़त की मांग की थी.. उनमें से दो को पेड़ से लटकाना, ताकि गांव वालों को सनद रहे कि ये क्रांति करने की उनकी औकात नहीं है.. पुलिस और नेता का अभियुक्त के सिर पर वरद हस्त होना.. और सबसे बड़ी और उलझी हुई बात कि बाकी सभी का, इसे सिर्फ और सिर्फ जात से जोड़कर देखना और ये स्वीकारना कि औकात में रहना ज़रूरी है.. क्या सचमुच ये आज की कहानी है? अब की ही बात है? या अनुभव सिन्हा किसी और देश, किसी और काल में ले चले हैं हमें?

नकारना चाहती हूं इस कहानी को.. कहना चाहती हूं कि न, अब ऐसा नहीं होता.. पढ़े लिखे, शहरों में रहने वाले तो कम से कम ऐसा कुछ नहीं करते.. पर अफ़सोस, बहुत चाहकर भी ये कह नहीं पा रही हूं.. दिल और दिमाग़ दोनों कुंद हैं.. और जानती हूं कि ये सब होता है, धड़ल्ले से होता है और हम आंख मूंद कर, आगे बढ़ जाते हैं..

जाति हमारे समाज के रग रग में बसी है.. ऊंच नीच से भी कहीं ज़्यादा, हर स्तर पर कितनी ही जातियां, उपजातियां, और उनमें छोटे बड़े का भेद.. फिल्म का वो डायलॉग, “सर, मैं चमार हूं, वो पासी है.. हम उनका छुआ नहीं खाते” बतलाता है कि समस्या की जड़ें कितनी गहरी हैं.. सिर्फ चार वर्ण नहीं, हर वर्ण की अपनी ही एक माला है, जिसके मनके ताकत और पैसे के बल पर ऐंठे जाते हैं, घुमाए जाते हैं और जोड़े तोड़े जाते हैं..

आर्टिकल 15, संविधान में मौजूद होगा, समाज में कहीं नहीं है.. शायद फिल्म तो सिर्फ़ जात की बात कर रही है, पर मैं देखते देखते इस बात में भी डूब गई कि औरत तो एक अलग ही जात है.. उसको लूटना खसोटना, तो हर मर्द का शगल.. सदियों से हर बात का ठीकरा उसी के सिर तो फूटा है, और हर दुश्मनी का ख़ामियाजा उसी ने तो भुगता है..

काश! कह पाती कि परिस्थितियां अब बदल रही हैं, पर जानती हूं ये बात मैं जाति की ही तरह औरतों के लिए भी नहीं स्वीकार पाऊंगी.. अब भी समीकरण वही हैं वैसे ही हैं.. अफ़सोस चीज़ें जितनी ऊपर से बदली दिखती हैं, अंदर से उतनी ही तटस्थ हैं..

फिलहाल तो आयुष्मान खुराना और अनुभव सिन्हा की ही तरह, मैं भी केवल इसी उम्मीद में हूं, कि किसी ने इस मुद्दे को देखने और सामने लाने की शुरुआत तो की.. अभी काम तो बहुत बाकी है.. अनुपमा सरकार

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा

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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, नेटफ्लिक्स पर अभी अभी देखी.. विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म और राजकुमार राव की मौजूदगी, देखे बिना कैसे रहती..

पर मूवी बहुत ही स्लो है, और अलग होने की कोशिश में ओवर ड्रामैटिक भी.. ये नहीं कहूंगी कि सब्जेक्ट अच्छा नहीं था.. है, और काफ़ी हद तक ज़रूरी भी.. जिस समाज में हम अभी प्रेम संसार में जात, गोत्र और सोशल स्टेटस में उलझे हैं, वहां दो लड़कियों की प्रेम कहानी, सचमुच बोल्ड सब्जेक्ट है..

सेक्सुअल प्रेफरेंस पर फिल्म बनाना और एक संवेदनशील मुद्दे को साफगोई से पेश करना, आसान तो बिल्कुल नहीं.. और सच कहूं तो कुछ हद तक ये फिल्म, कम से कम इस कसौटी पर तो खरी उतरती है कि लेस्बियन रिलेशनशिप को कॉमेडी नहीं बनाया..

पर इसके अलावा बाकी सभी कसौटियों पर फिल्म बुरी तरह फेल होती है.. मुझे सोनम और अनिल कपूर में वैसे भी एक्टिंग की पॉसिबिलिटी कम ही दिखती है, तिस पर जूही की ओवर एक्टिंग तो बहुत ही ख़राब, इस मामले में उन्होंने “प्रेमा जी” को भी पीछे छोड़ दिया इस फिल्म में..

राजकुमार एक्टिंग के पायदान पर जमे रहते हैं, और काफ़ी हद तक सफल भी रहे.. पर अफ़सोस उनका साथ देने में सोनम स्ट्रगल करती दिखती हैं.. उनकी जगह अगर रेजिना केसेंड्रा होती, जिन्होंने सोनम के लव इंटरेस्ट कुहू की भूमिका निभाई है, तो शायद फिल्म कहीं ज़्यादा प्रभावशाली दिखती.. अभिषेक दुहन, सोनम के भाई बबलू की भूमिका में हैं, और उनकी एक्टिंग भी काफ़ी अच्छी है.. सीधी सी बात तो ये कि इस फिल्म को बड़े नाम डुबो बैठे.. नामी गिरामी एक्टर्स की जगह बेहतर अभिनय को तवज्जो दी जाती तो मूवी इंप्रेसिव लग सकती थी..

फ़िलहाल तो मैं इस से कहीं भी, कैसा भी जुड़ाव महसूस नहीं कर पाई.. सब्जेक्ट अलग है, नया है पर ट्रीटमेंट वही पुरानी.. फिल्म देखना चाहें तो देख सकते हैं, कोई भी सीन आपकी सेंसिटिविटी को प्रभावित न करे, इसका खास ख्याल रखा गया है.. पर मेरे हिसाब से ये विधु विनोद चोपड़ा की सबसे बोरिंग फिल्म है, न तो “क़रीब” जैसा स्मॉल टाउन इफेक्ट है न “मिशन कश्मीर” की इंटेंसिटी और न ही “3 इडियट्स” वाला कमाल.. अनुपमा सरकार

जारी है लड़ाई, संतोष पटेल

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“जारी है लड़ाई”, संतोष पटेल जी का प्रथम हिंदी कविता संग्रह, आज हिंदी दिवस के अवसर पर उनके कर कमलों से प्राप्त हुआ…

घर पहुंचते ही पढ़ने बैठ गई… कुल मिलाकर 58 कविताएं हैं, पर भाव हों या शब्द संयोजन, विविधता की कहीं कमी नहीं… अधिकतर कविताएं बहुजन समाज की पीड़ा और उनके संघर्ष की वास्तविक छवि प्रस्तुत करती हैं… कह सकते हैं कि इन कविताओं में विरोध का स्वर मुखर है… समाज में व्याप्त बुराइयों, ऊँच नीच की प्रथाओं, जाति, धर्म, वर्ण आधारित भेदभाव और उनसे उपजे विक्षोभ और विद्रोह की भावनाओं को सन्तोष जी ने बहुत ही संवेदनशील तरीके से शब्दों में बाँधा है…

पांच साल की उम्र में ब्याही गई लड़की की बात हो या दशरथ मांझी के पहाड़ खोद लेने की पहल या फिर हो राजनीति और साहित्य का गलियारा, कवि हर दशा और दिशा में दुर्बल वर्ग का हाथ थामे, उनकी दबी कुचली इच्छाओं और भावनाओं को व्यक्त करते हुए, मनुष्यता और सभ्यता का असल रूप दिखाते नज़र आते हैं…

सम्पन्न होने पर भी संकीर्ण रहना और विपन्नता में भी प्रसन्न होना, किसी धन या धर्म की बपौती नहीं, बल्कि केवल और केवल आत्मबल से ही संभव है, यह बात संतोष जी बेहद सरल सहज तरीके से अपनी कविताओं में बताते चलते हैं…

अपने आसपास के जीवन और समाज को तीक्ष्ण और प्रखर बुद्धि से देखते हुए एक संवेदनशील व्यक्ति किस तरह व्यथित हो उठता है… तर्क और न्याय को पीछे धकेल, किस क़दर इंसान ही इंसान को दबाने की कोशिश करता है… और इन सबके बीच एक कवि मन, आहत होकर अपनी कलम को ही हथियार बना, कैसे हुलस कर उठ खड़ा होता है… बस यही इन कविताओं का सार है, बल्कि कहूंगी कि इस संसार की दुर्दशा पर एक उन्मुक्त कंठ का वार है…

भेदभाव हमारे समाज में कुछ इस तरह व्याप्त है कि ज़्यादातर मौक़ों पर हमें ध्यान भी नहीं रहता कि जाने अनजाने हम कैसे अपने साथी मनुष्यों का दिल दुखाए चलते हैं… कविताएं पढ़ते पढ़ते उनके शब्द कभी बाण सरीखे हृदय में चुभते हैं तो कभी कोर भीग उठते हैं…

केवल लय ताल नहीं, भावनाओं को आंदोलित करना ही कविता का स्वाभाविक रूप है, कर्म है, नियम है… और इस कसौटी पर ज़्यादातर कविताएं खरी उतरती हैं…

भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर और सरल सहज हृदय संतोष पटेल जी का हिंदी काव्य जगत में पहला कदम, निश्चित ही सराहनीय है… आप भी पढ़िए और एक नए नज़रिए से रूबरू होइए… नवजागरण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ये किताब मात्र 125 रुपए में अमेज़न पर उपलब्ध है…

संतोष जी को पुनः हार्दिक शुभकामनाएं एवम् बधाई… अनुपमा सरकार

Mindhunter, Season 1, Netflix Original

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Mindhunter is a Netflix Original Series, concentrating on the Behavioral Science Unit of FBI.

Agent Ford and Agent Trench, who are responsible for making the FBI Agents familiar with the psychological aspect of crime and criminals, end up realizing that they are not really familiar with modern day criminals, leave alone understand their psychological background or emotional makeup.

In the first episode itself, Ford realizes his short falls and is quick to make amends by suggesting Trench that they should go and meet some locked up psychopaths to understand what and how they ended up choosing and killing their victims. Though Trench is late to warm up to his revolutionary ideas, however, the duo do end up interviewing one of the most talkative killer, Ed Kemper. Ed is a huge man, almost seven feet tall, with massive hands, thick glasses and smooth tongue. Holden Ford gets smitten with his first interviewee and Trench follows suit.

I believe that Mindhunter hits a jackpot with the Kemper episode. As I saw Ford and Trench sitting across Kemper, my heart raced and I was damn curious to know what prompted this sweet talker to kill and rape six women, in addition to his own mother and grandparents, doing sick things with their bodies and then keeping their body parts as trophies. As the story continued, major insights were shared by Ed Kemper. He is the first one to admit that the psychopaths view their crimes as a means to gain control and derive satisfaction and pleasure. Sex is just the tip of the iceberg. More often than not, it’s the violence they enjoy and seek to repeat.

After interviewing Kemper, the agents’ confidence surges and they are quick to follow with more gruesome killers, some of them great talkers and braggarts, while others are not even ready to concede to their crimes. Mindhunter progresses smoothly with these interviews being the axis, while the personal lives of Ford and Trench providing essential framework to the story.

The series is loosely based on the book by Agent Douglas, a real FBI official and Ford is an extension of his persona. Most of the interviewees are also real killers, though the stories are old, belonging to the Seventies, so I wasn’t familiar with most of them. It was the era when even the term serial killer was not coined. Even though a few had been arrested, yet their series of crimes was not investigated from the psychological point of view. FBI was merely acting as an extension of regular cops.

However, Ford and Trench along with Professor Carr managed to convince the higher ups that what they are doing, is not a closed room study but a revolutionary change in strategy to fight or rather beat crimes even before they occur! Ford tries to prove his theory by solving real time crimes and is quite successful at that.

As for the Netflix Original, it is a hand down winner. It’s not your regular detective series, but an engaging saga of gruesome murders, told first hand by the perpetrators themselves, without a whiff of remorse. Assault seemed so natural to these killers that the heinous crimes paled in comparison to their guiltless demeanor.

The twist at the end of the last episode has me in grips. Ford having a possible panic attack was the last thing I expected from the genius. Mindhunter is dark, engaging and addictive, and I bet no one can stop after watching one episode… Anupama Sarkar

सनम

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हौले से मैना मुस्काई
कोयल भी ज़रा सी शर्माई
तितली भंवरे फूलों से कहें
आ फागुन के गीत हम मिलके बुनें
आमों की कच्ची कलियां चुनें
सेमल की पत्तियों को हम गिनें
वो उड़ती चीलें अलबेली
वो डरती सहमी गिलहरी
हाथों में हाथ जो थाम लें हम
छोड़ें न साथ तुम्हारा सनम!अनुपमा सरकार

Destiny and Destination

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At times I feel I am fighting a lost battle. Anything I do, say or attempt, makes no difference. I am stuck in a rut, the more I try the more I get trapped.

And yet, there is a small voice inside that keeps rearing its Head, goading me to carry on the path I have chosen. There may be obstacles, there may be gravel, there may be ditches on that road, but ultimately it’s my destiny to walk on. The little voice repeats it’s musings like a mantra, someday somewhere somehow you will eke out a beautiful life.

Destiny and Destination may sound so similar and yet they are so different from each other. Reaching a place, achieving a goal, fulfilling a dream may seem so alluring. And yet it’s the journey, the planning, the process that matters.

A skilled potter never hurries. His art begins right from the moment he first touches the soil. The patience and care he exerts in selecting the right soil, the time he spends in removing gravel, the way he sieves the coarse particles away, discarding pebbles and adding the right amount of water to make perfectly malleable clay is where lies his real art.

The amount of pressure he applies to the wheel, the way he moves his hands and the loving gentle way the final pot is removed, all contribute to the fineness and perfection of pottery. Even the fierce burning of raw clay pots in furnace, is done with a certain clarity and firmness.

As I think about the humble potter and his skills, I am nothing but awed by the myriad ways God uses to push us towards our Destination. Destiny it may seem and yet Free Will it is, that paves the path. In tragedy it’s really difficult to look at the silver line, and yet every time my world is clouded, I couldn’t help but wonder where the Sunshine lies! Often round the corner, yet invisible.

So is destiny, so is life, so are dreams and so are expectations. They are always there, hidden behind one another in plain view, becoming apparent only when a certain set of conditions are met. And then blinded by the sudden plethora of light and delight, I wonder where it had been for so long. And then that little voice inside mumbles, it had always been there, you were looking in the wrong direction!

What is life if not a mumbo jumbo of intricate lanes! Underpasses and bypasses here run parallel to highways and I am often fooled by sudden turns. Hopefully I am God’s Fool, and he, as always would make sure I reach the right place despite many wrong turns. Anupama Sarkar

G. K. Chesterton

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G. K. Chesterton, a prolific writer, a self-confessed social and literary critic and a rare genius with golden tongue and silver dipped words.

Well, a man who can wield his pen in such myriad ways as a journalist, as a religious preacher, as a moral upholder and yet cook up enough humorous stories with detective fiction, being one of the fav, is bound to be famous. However, when I first read his book The Man Who Knew Too Much, I was appalled to know that he does not often figure in the most read classic authors. In fact, he is completely overshadowed by his contemporary George Bernard Shaw. Literary circle is as intriguing as life, isn’t it?

G. K. Chesterton was born in London. He began his career as a journalist, wrote over 4000 newspaper articles, ran his own weekly, wrote criticisms of his contemporary and classic writers, even dabbled in biographies and then created a detective figure, Father Brown, in his special tongue firmly in cheek with a smile on face manner.

If you have not read him yet, hop on to his books, or read my review to get an idea of how and what he writes. And, of course, treat yourself to his pearls of wisdom, each more precious and enchanting than the other.

“There are no uninteresting things, only uninterested people.”

“The traveler sees what he sees. The tourist sees what he has come to see.”

“A good novel tells us the truth about its hero; but a bad novel tells us the truth about its author.”

“Do not be so open-minded that your brains fall out.”

“A man must be prepared not only to be a martyr, but to be a fool. It is absurd to say that a man is ready to toil and die for his convictions if he is not even ready to wear a wreathe around his head for them.”

“The most poetical thing in the world is not being sick.”

“I had always felt life first as a story: and if there is a story there is a story-teller”

“The worst moment for an atheist is when he is really thankful and has no one to thank.”

“Free verse is like free love; it is a contradiction in terms.”

“There nearly always is a method in madness.”

“Political Economy means that everybody except politicians must be economical.”

“Every revolution, like a repentance, is a return.”

“If you want to know what you are, you are a set of highly well-intentioned young jackasses.”

“And if great reasoners are often maniacal, it is equally true that maniacs are commonly great reasoners.”


जुस्तजू

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उफक छूने की अब हसरत न रही
टूटते तारों में वजूद ढूंढता है कोई?

फलक पर चांद की जुस्तजू न रही
नाज़ुक जुगनुओं से खेलता है कोई?

हाथों से फिसलती रेत सा वक्त
चाहकर भी रोक पाया है कोई?अनुपमा सरकार

समाजवाद, ज़रा हटके

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जाते हुए बैट्री रिक्शा गलत लेन में था, कार वाले ने डांट पिलाई, गाड़ी क्यों बीच में अटका रखी है… रिक्शे वाला खुद में सिमट गया…

आते हुए एक कार वाले ने फोन पर बात करने के चक्कर में गाड़ी गलत जगह खड़ी करके रास्ता रोक रखा था, अबकि बैटरी वाले ने कहा, “अरे अंकल, गाड़ी बढ़ाए लयो, फोन काट ल्यो”… और कार वाला चुपचाप शर्मिंदा हो आगे बढ़ चला…

हमारे देश में समाजवाद का एक ज़ायका ये भी है… गलती सब करते हैं, पर दूसरे की गलती जतलाना और मनवाना भी बखूबी जानते हैं… अनुपमा सरकार

मेरी दिल्ली

अबोध

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यूट्यूब पर अपनी एक कविता पढ़ी थी ‘अबोध’… अभी देखा तो संतोष पटेल जी ने उस रचना की समालोचना अपनी वॉल पर शेयर की है… अच्छा लगा और आप सबके साथ बांटने का मन हुआ 🙂

अनुपमा सरकार की कविता ‘अबोध
-संतोष पटेल

अनुपमा सरकार की ‘अबोध’ कविता केवल भाव नहीं विचार की भी कविता है। इसमें उपदेश की महक और सोद्देश्यता की गंध नहीं है । एक नैतिकता है। इलियट के शब्दों में कहें तो इसमें इमोशनल इक्किवेलेंट ऑफ थॉट (emotional equivalent of thought) है।
मनोविज्ञान कहता है कि विश्व में जितने भी विचार हैं, वे आरम्भ में, भावों के रूप में ही पैदा होते हैं और धीरे धीरे, स्वच्छ होकर विचारों के स्तर पर पहुँचते हैं।

‘अबोध बालक’ और उसकी जिजीविषा का जिस ढंग से अनुपमा सरकार इस कविता में प्रयोग करती हैं उससे मेटॉफेजिकल एरा के महान कवि Henry Vaughan की कविता The Retreate की याद ताजा हो जाती है जिसमें एक अबोध बालक को angel infancay कहा।गया।

जैसे एक बालक माँ के गर्भ में जिस तरह से नौ महीने रहता है और जीने की लालसा में सब दुःख सहता है यह पंक्ति बेहद दिलचस्प है। साधरणतया दूसरे कवि माँ की दुःख को अभिव्यक्त करते हैं, प्रसव पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं और साथ ही माँ के त्याग का बखान भी करते है परन्तु अनुपमा ने बिल्कुल लीक से हटकर कविता में शिशु के द्वारा हर परेशानी को झेलता हुआ दिखाया गया है उसका मुख्य कारण उसकी जिजीविषा है। यहाँ अचानक रोला बार्थ हमारे समक्ष अपने ‘प्लेज़र ऑफ द टैक्सट’ लेकर जाते हैं और इस कविता में पाठात्मकता( टैक्सचुअलिटी) के सिद्धान्त को खोल देते हैं। बार्थ हर उस चीज का पक्षधर है जो केन्द्रपसारी (cetrifugal) है यही उसके लेखन की अंतरंग बहुलार्थता है जो अनुपमा की इस कविता में देखने को मिलती तब जब वे शैशव को शिशु तक ही सीमित नहीं रखा है नहीं वरन जीवन के प्रारम्भ होने से लेकर अंतिम अवस्था के बीच में आने वाले अनेक अवस्थाओं में मनुष्य का शिशु बन अपने भीतर जीने की उत्कट आकांक्षा रखता है।

अबोध कविता में अनुपमा सरकार ने सौंदर्य तत्व का जो सूक्ष्म मौलिक चिंतन किया है वह उन्हें छायावादी काव्य के मूल चेतना से जोड़ता है।

परम्परा को नकारते हुए अनुपमा के काव्य विषयक चिंतन में मौलिकता है। शब्द और अर्थ के तनाव को दूर कर उन्हें मिला देने की आकांक्षा में शिल्प और वस्तु को समन्वित कर देने की आकांक्षा निहित है।
लीजिये आप भी इस कविता का रसास्वादन करें”

ये कविता मेरे शब्द मेरे साथ पर मौजूद है

अनुपमा सरकार की कविता अबोध

स्त्री शक्ति, समालोचना, संतोष पटेल

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कुछ समय पहले यूट्यूब पर एक कविता पढ़ी थी “स्त्री शक्ति”… संतोष पटेल जी ने इस कविता को न केवल सुना और पढ़ा, बल्कि उसकी विवेचना और समीक्षा करते हुए, कविता ही नहीं, काव्य कर्म से जुड़े कई पहलुओं पर भी बहुत ही सूक्ष्मता से अपने विचार प्रकट किए हैं…

(स्त्री शक्ति मेरे शब्द मेरे साथ पर उपलब्ध है)

प्रस्तुत है स्त्री शक्ति की समालोचना संतोष पटेल जी के शब्दों में…

“टिप्पणी: सद्य कविता की विवेचना करने से पहले कविता के सम्बन्ध में कुछ बातें स्पष्ट हों जाए तो विवेचना की ओर बढ़ना सहज होता है।

कविता कोई अशरीरी या असंस्कारिक विधा नहीं है। संसार के अनुभवों के द्वारा ही कविता की यात्रा सदा हुई है और इस यात्रा में कविता बने रहने की बुनियादी शर्तें क्या हों-यह तय कर पाना कठिन कार्य है और खतरा इस बात का बराबर बना रहता है कि यह कार्य कहीं अंततः हद दर्जे के सरलीकरण में पर्यवसित होकर न रह जाये। कविता के कविता होने की शर्त और उस शर्त की चिंताओं के सरोकार वास्तव में कवि-कर्म और काव्य-विश्लेषण, दोनों ही स्तरों पर सजगता की मांग करता है- जैसा कि सत्य प्रकाश मिश्र, आलोचक परमानंद श्रीवास्तव के पुस्तक ‘समकालीन कविता का व्याकरण’ के लिए लिखते हैं।

अनुपमा सरकार एक ऐसी समकालीन युवा हस्ताक्षर हैं जो किसी खास ‘वाद’ में बंध कर नहीं लिखती। उनकी रचनाओं से गुजरने के बाद उनकी वैविध्यपूर्ण दृष्टिकोण समझ में आ जाता है। वह जिस तरह से लिखती हैं उसमें व्यक्तिवाद नहीं आत्मीयता है, काल्पनिक उड़ान नहीं, आत्मप्रसार है, समाज-भीरुता नहीं प्रकृति प्रेम है, प्रकृति पलायन नहीं वरन नैसर्गिक जीवन की आकांक्षा है, आवेगपूर्ण भावोच्छवास नहीं, संवदेनशीलता है, सौंदर्य की कल्पना नहीं, भावना है, स्वप्न नहीं, अपितु स्वप्न की वास्तविक आकांक्षा है और अज्ञात की जिज्ञासा नहीं, ज्ञान का प्रसार है। कुल मिला कर आप इनकी कविताओं के लक्षणों को विश्लेषित करते हैं तो छायावाद से जोड़ सकते हैं जैसा कि आलोचक नामवर सिंह ‘छायावाद’ (पुस्तक-कविता के नए प्रतिमान) नामक अध्याय में उल्लेखित किया है।

‘स्त्री शक्ति’ कविता फेमिनिज्म की कविता है या नहीं इसपर भी हमें विचार करना है। जैसा कि ‘स्त्रीत्व’ सांस्कृतिक निर्मिति है। इसे एलिस जॉर्डिन और पाल स्मिथ सम्पादित ‘मेन इन फेमिनिज्म’ पुस्तक में बताया गया है कि ‘स्त्री साहित्य’ में तीन पदबन्ध हैं। ये हैं: 1. ‘स्त्रीत्व’, 2.स्त्रीवाद, और 3. स्त्री

‘ स्त्रीत्व’ सांस्कृतिक निर्मित है, स्त्रीवाद राजनीतिक दृष्टि एवं लक्ष्यों की अभिव्यक्ति तो ‘स्त्री’ लिंगाधारित शारीरिक पहचान का प्रतीक है।
(पृष्ठ 8, स्त्री-साहित्य के इतिहास लेखन की समस्याएं, स्त्रीवादी साहित्य विमर्श, लेखक: जगदीश्वर चतुर्वेदी)

उपरोक्त कविता में कवयित्री की भक्ति से शक्ति तक की यात्रा पाठकों का ध्यान उसकी अर्थवत्ता की ओर ले जाती है। कवयित्री भावों को बिंबों में उपस्थित करती है क्योंकि इस कविता में बिम्ब एक विशिष्ट पैटर्न में व्यवस्थित होते हैं इसलिए यह कविता बार बार पढ़ने के लिए हमें बाध्य करती है। इस कविता में प्रयुक्त बिम्ब, प्रभावी मुहावरे, शब्द-विन्यास, लय, टोन ध्वनि आदि संयुक्त रूप से कविता के टेक्श्चर (texture) को रूपायित करते हैं।

अनुपमा सरकार लोकप्रिय स्त्री काव्यधारा की कवयित्रियों से इतर कविता का विषय कृष्ण, राधा अष्टमी, अन्नकूट, रासलीला आदि नहीं बनाती परन्तु लोकोत्सव से संपृक्त नहीं होतीं क्योंकि पूरी कविता में केंद्र दुर्गा को स्त्री शक्ति का मानक माना गया है। अनुपमा इस तरह लोकप्रिय स्त्री काव्यधारा की कवयित्रियों से भिन्न हैं कि उन्होंने अपनी कविता में पुरुष को नायक नहीं वरन स्त्री को नायक बनाया है और शक्ति का केंद्र भी घोषित किया है। इस प्रकार अनुपमा परम्परा को तोड़ते हुए, स्त्री को नायकत्व प्रदान करती है। समकालीन कवयित्रियों की भाषा के अनुरूप वर्जिनिया वुल्फ की शब्दो में …स्त्रियों के लिए वाक्य हमेशा समास बहुल रहा है। पुरुष की भाषा की तुलना में स्त्रियों की भाषा में वाक्य काफी उदार, सहज और स्वाभाविक नजर आता है। सरल वाक्यों में विस्तार की संभावना होती है।

अनुपमा इस कविता में पुरुषों को यथोचित सम्मान देते हुए लिखती हैं कि “पुरूषों को स्नेह मिश्रित अश्रुधारा में डूबे पाया” वस्तुतः यह स्पंदित मानवीयता की अभिव्यंजना को अभिव्यक्त करता है।

कविता में आया ‘बांए पांव के नीचे अर्ध पुरूष’ उपवाक्य समकालीनता में अपनी संस्कृति को रि-डीफ़ाइन करने में लगे भारत के एक बड़के तबके का आज ‘विशिष्ट पुरुष’बन गया है जिसे मूल निवासियों का उत्तम पुरुष बताया गया है, इस तबके को नागवार लग सकता है बहरहाल, प्रबुद्ध वर्ग सहज स्त्रीत्व की भाषा की परखते हुए कविता के मूल उत्स तक पहुँचने की कोशिश करेगा तब यहां विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।

अंत में यह कहना समीचीन है कि अनुपमा ने कविता में वृहत्तर स्पेस अर्जित किया है। आप कब काव्यात्मक गद्य लिख देती हैं और काव्य में कब चित्रात्मक शैली दर्ज कर देती हैं यह आपकी काव्यात्मकता के गुण हैं। सुसन सोटेंग के शब्दों को उधार लेकर कहूँ तो- बिंबों की भाषा में दुनिया को पाना यथार्थ के अयथार्थ और सुदूरपन को नये सिरे से पाना है… संतोष पटेल”

(स्त्री शक्ति मेरे शब्द मेरे साथ पर उपलब्ध है)

तोड़ दो, कविता पाठ

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स्त्री को देवी मानने वाले हमारे देश में आए दिन हत्या और बलात्कार की खबरें सुनने को मिलती हैं… बात भ्रूण हत्या की हो, दहेज के नाम पर ज़ुर्म ढाने की हो, परम्पराओं के नाम पर बेड़ियां पहनाने की हो या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की… लंबी चौड़ी फ़ेहरिस्त है औरत पर किए जाने वाले ज़ुल्मो की… ऐसे माहौल में स्त्री मन क्षुब्ध हो, जब कलम उठाता है तो शब्द नहीं शूल ही बरसते हैं… तोड़ दो कविता, अखबार की सुर्खियों को पढ़ते हुए, भाव विहवल हो लिखी थी… नहीं सहन हुआ था रोज़ रोज़ किसी के जीवन को सिर्फ हेडलाइंस बनकर सुनना और भूल जाना… नहीं जानती कितना समेट पाई उन एहसासों को, पर आज की प्रस्तुति में आहत स्त्री मन ही है, जो व्यथित है, निराश है, और एक बेहतर समाज की आस में इन शब्दों को ढाल बनाकर मुखर हो उठा है… मेरे शब्द मेरे साथ में आज सुनिए मेरी कविता “तोड़ दो”

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