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प्रेम विवाह

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प्रेम पर मित्र की कविता पढ़ी.. और देर तक सोचती रही कि सही ग़लत, आगे पीछे, परिस्थितियों और परिणामों को सोचकर प्रेम होता है क्या.. और अगर नहीं तो क्या इनसे प्रभावित भी नहीं होता?

छोटा सा शब्द है प्रेम.. पर जितना इस पर लिखने कहने का प्रयास हुआ, शायद ही किसी और भाव पर होता हो.. दरअसल भावनाओं का प्रवाह समझना कठिन ही नहीं, असम्भव है.. खासकर तब जब हम खुद इसके घेरे में खड़े हों.. किसी से प्रेम होना, बेहद खूबसूरत अहसास है.. पर क्यों, कैसे, कब हुआ और क्यों, कैसे, कहां साथ छूट गया, ये समझने में उम्र बीत जाती है, हाथ पल्ले कुछ नहीं आता..

कल्पनाओं में बहकर कहूं तो शायद समझ कभी आ ही नहीं सकता कि क्योंकर किसी से हुआ और उस जैसे ही बाकियों से नहीं हुआ.. आंतरिक ऊर्जा का आदान प्रदान है प्रेम और हम तो लिखी दिखी बातों को भी अलग अलग तरीके से समझते हैं, फिर इस अनकहे अहसास पर क्या ज़ोर..

हां, एक बात दीगर है कि प्रेम, किसी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा दिखना/होना है, जिस से हम जुड़ाव महसूस करें.. और वहीं, कड़वी सच्चाई है कि प्रेम आपको आपकी समझ बूझ के अनुसार ही होता है.. मानव मन कितना भी उलझा हो, अपने लिए साथी ढूंढते हुए, हम सभी बेस्ट देखते हैं.. विपरीत के प्रति आकर्षण होने के बावजूद, दरअसल प्रेमी कहीं किसी स्तर पर बिल्कुल एक जैसे होते हैं.. अक्सर आइना होते हैं एक दूसरे के लिए.. बस ये समझने की क्षमता नहीं होती, जब आप प्रेम में हों!

वैसे, हमारे यहां फिल्मों में केवल शक्ल देखकर ही हीरो को हीरोइन से प्यार हो जाता है.. और कुछ तकरार इज़हार के बाद इकरार.. उसके बाद की ज़िंदगी, वे साथ में कैसे बिताते हैं, ये जानने की इच्छा न दर्शक में होती है और न ही फिल्मकार में.. और हो भी क्यों.. आखिर हम असलियत में भी तो यही करते हैं.. लड़का लड़की को एक दूजे से परिवार, रुतबा, रूप देख मिलवाते हैं.. परस्पर एक दूसरे को तौलते हैं.. सम्बन्धी बनने बनाने से पहले औकात जानी समझी जाती है.. और चार दिन के शोर शराबे के बाद दो जन, सारी उम्र के लिए एक दूसरे के साथ बन्ध जाते हैं..

हालांकि ऊपरी तौर पर अरेंज्ड मैरिज का ये तरीका बेहद उथला लगता है, इसके बावजूद हमारे समाज में ज़्यादातर शादियां जो परिवार द्वारा करवाई जाती हैं, सफल होती हैं.. और वहीं लव मैरिज अब भी कुछ कम ही होती हैं, और हों भी तो बहुत कामयाब नहीं..

पर यहां कामयाबी का मतलब भी बहुत सतही है.. आखिर दो लोग, जो एक दूसरे के साथ, बच्चों को संग लिए, हर पारिवारिक कार्यक्रम में खुश नज़र आते हैं.. वही अपने अंतर्मन में एक दूसरे के कितने साथ हैं, कौन जानता है.. वहीं दूसरी ओर, एक मुस्कान पर जान देने वाले प्रेमी, अपनी प्रेमिका का साथ कब तक निभा पाते हैं, ये भी कौन जानता है..

सोशल मीडिया पर प्रेम पर बहुत कुछ पढ़ती हूं, समझ में इतना ही आया कि अधिकतर लोग प्रेम और विवाह को mutually exclusive मानते हैं.. शादी कर ली, तो निभानी है, पर हां, सोच में कोई और भी हो सकती/सकता है, जब तक बात ओपन न हो जाए, कोई खास प्रॉब्लम नहीं..

वहीं प्रेम करने वालों के लिए इस शब्द का अर्थ एक खूबसूरत लड़की को बाइक पर घुमाना या एक cool dude के साथ क्लब जाने तक सीमित भी हो सकता है.. ध्यान दीजिएगा कि यहां भी सारा दारोमदार शक्ल और रुतबे पर ही केन्द्रित है.. तो अलग अलग दिखते हुए भी, हमारे समाज में प्रेम और विवाह का आधार एक जैसा ही है.. सुंदर/धनवान/रुतबा.. आखिर हम जो आस पास देखकर बड़े हुए हैं, उसी के अनुसार तो जीवन भी जियेंगें न!

जब भी इस विषय पर सोचूं, लगता है कि कहीं न कहीं तो हमने प्रेम और विवाह का अर्थ समझने में ही भूल कर दी है.. प्रेम केवल दैहिक और आर्थिक सुविधाओं पर नहीं टिक सकता.. इस से कहीं गहरे उतरना होता है प्रेम में.. मन खोलना पड़ता है, अपनी insecurities को साथी के सामने बेझिझक स्वीकारना होता है..

जब हद से गुज़र जाए प्रेम, तो उसकी प्राकृतिक परिणीति होना चाहिए, विवाह.. उस से पहले नहीं.. एक ऐसा समय जब एक स्त्री और पुरुष एक दूसरे को इतना जान समझ लें कि विषम और सम परिस्थितियों में, साथ निभाने की हिम्मत कर सकें, परवाह और नेह, देह के आकर्षण से आगे बढ़ चुका हो.. किसी एक के असफल हो जाने, बीमार पड़ जाने या भूल चूक हो जाने पर भी, दूसरा उसे स्वीकार कर पाए.. जब सिर्फ अच्छाइयां न दिखती हों, बल्कि आप एक दूसरे की बुरी आदतों से भी परिचित हो चुके हों.. शायद तब होना चाहिए प्रेम विवाह.. अन्यथा इसमें और अरेंज्ड मैरिज में अंतर भी क्या.. सिवाय इसके कि इसमें आपका अपना परिवार, सुलह करवाने में नहीं, बल्कि दोष निकालने में ज़्यादा तत्पर रहेगा..

प्रेम अहसास है, एक सा नहीं रह सकता.. कभी निर्झर बहेगा, कभी बूंद बूंद के लिए तरसा देगा.. खुद से खुद की पहचान है, और साथी में अपना साया देखकर भी घटने बढ़ने की तमाम संभावनाओं का नाम है प्रेम.. जब तक ऐसा न हो, समझिए आप अब भी समाज की बेड़ियों वाले ढांचे की गिरफ्त में ही हैं, मन की गुज़र में नहीं.. तब तक प्रेम समझना असंभव ही रहेगा और जीना उस से भी कहीं कठिन.. सही गलत, परिस्थिति, परिणाम, सब उलझने सुलझने हैं इसमें, ये कहीं भी कभी भी सरल सुगम नहीं, बस इसमें आपकी मर्ज़ी शामिल हो तो, दुख नहीं लगता.. प्यार से सोचिएगा, स्त्री पुरुष के सम्बन्ध का नाम ही है प्रेम, कैसे भी मिले हों, कैसे ही जुड़े हों!! अनुपमा सरकार


सोवियत नारी

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आप में से किसी को “सोवियत नारी” याद है? बढ़िया क्वालिटी का पेपर, रंग बिरंगी तस्वीरें और जाने कितने ही लेख और कहानियां.. 80 के दशक में घर घर पहुंची थी ये पत्रिका.. रूस और भारत की दोस्ती के दिन थे वो.. मीखेल गोर्बाचोव इंडिया आए थे, राजीव गांधी के साथ उनकी तस्वीरें उस वक़्त के न्यूजपेपर्स की हेडलाइंस हुआ करती.. बहुत छोटी थी, इन राजनीतिज्ञों से कुछ लेना देना नहीं था, सिवाय इसके कि दोनों नेता दिखने में बहुत इंप्रेसिव लगते थे ☺

और वैसे भी मेरे बाल मन का USSR से परिचय पॉलिटिक्स या geography ने नहीं, बल्कि दो खूबसूरत मैगज़ीन्स ने करवाया था.. पहली सोवियत नारी, जिसमें रशियन कहानियां और खूबसूरत कढाई बुनाई के पैटर्न होते.. और दूसरी मीशा, जिसमें बच्चों के लिए ढेरों इलस्ट्रेटेड बाल कहानियां होती.. तोलस्तोय, चेकव और न जाने कितने ही रशियन राइटर्स से मेरा पहला परिचय इन्हीं पत्रिकाओं ने करवाया था..

शायद 3 साल की मेंबरशिप थी हमारे पास, लगभग हर महीने किताबें आती.. और मैं 9 साल की लड़की, बड़े लोगों की पत्रिका को चाव से पढ़ने में खो जाती.. एक बार रशियन भाषा सिखाने का फीचर भी शुरु हुआ था उसमें.. पर अफसोस जल्द ही मैग्जीन्स आनी बन्द हो गईं थीं.. और मेरे किश्त दर किश्त लंबी कहानियां पढ़ने का सिलसिला भी थम सा गया था..

याद आता है कि मम्मी ने सोवियत नारी की बहुत सी कटिंग्स सम्भाल कर रखी थीं.. embroidery और knitting वाले पैटर्न.. दूसरी मैगज़ीन मीशा इंग्लिश में होती थी, भाई को चटखारे लेकर हिंदी करके सुनाती थी, जाने कितनी बार गलत अनुवाद ही किया होगा, पर फिर भी हम दोनों के लिए उसका अलग क्रेज़ था..

आज यूं ही दिमाग में घूमी ये बात.. गूगल पर सर्च किया तो मालूम हुआ कि Soviet Woman के नाम से छपने वाली ये पत्रिका 1945 से लेकर 1991 तक अनवरत चली, जब तक कि USSR का स्वरूप नहीं बदल गया.. वुमन यूनियंस जो छापती थीं इसे..

पर इसका पॉलिटिकल एंगल तो कभी सोचा भी नहीं था.. हां लिटरेरी मैगज़ीन के रूप में ये मेरे बचपन की बड़ी मीठी याद है.. जबकि सोवियत संघ का होना न होना, कभी ध्यान में भी न आया.. शायद हम इतिहास में भी वही याद रख पाते हैं, जिस से हम किसी न किसी रूप में जुड़े हों, बाकी सब मेमरी से डिलीट!

और वहीं वर्तमान में होने वाले अधिकतर इवेंट्स को रजिस्टर भी नहीं कर पाते, जब तक कि वही बातें, एक अलग परिवेश में हमारे सामने न आ जाएं.. इतिहास पल पल बन रहा था, है और रहेगा, बस हम ही आंखें मूंदे बैठे हैं.. जाने कब कहां प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में हिस्सेदारी करते! अनुपमा सरकार

My Hindi Poems on Mirakee

टैगोर

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प्रिय कवि/लेखक/कलाविद टैगोर का जन्मदिवस हो और पाठकों की वॉल उनकी कविताओं से न सजी हो, ऐसा सम्भव ही कहां…

पर मुझे तो रबि दा की स्केचिंग उनके शब्दों से भी कहीं ज़्यादा भाती है… भाव संप्रेषण शब्दों पर निर्भर कहां.. मन में उठती तरंगें, अक्सर रंगों और सुरों में ही सध जाया करती हैं.. बहरहाल रोबी दा के बनाए कुछ स्केचेस आपके साथ शेयर कर रही हूं..

 

 

 

कभी बहुत दिल से लिखा था इनके बारे में.. चाहें तो इस लिंक पर पढ़ सकते हैं नहीं तो उनका जादू महसूस करने के लिए तो खैर ये चित्र ही काफी हैं 🙂

Rabindranath Tagore: A Soulful Painter

पुरुष

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अभी अभी एक खबर पढ़ी कि एक पति ने अपनी पत्नी की उंगलियां इसलिए काट डालीं क्योंकि वो आगे पढ़ना चाहती थी.. खून उबल आया, कैसे घटिया लोग हैं इस ज़माने में.. और फिर याद आया, कुछ साल पुराना एक वाकया.. किसी ने चुपके चुपके बतलाया था..

वो अक्सर किसी काम से दफ्तर में आती थीं.. वाकपटु थीं और मैं चुप्पा मिज़ाज.. वे ही बात शुरु करतीं.. कई किस्से सुनातीं.. एक दिन कहने लगीं कि पहले पति के शराब पीने की लत से परेशान रहती थी, अब मैंने फिक्र करना छोड़ दिया..

मैंने पूछा, क्यों? अब नहीं पीते? उन्होंने लंबी सांस ली और आपबीती सुनाने लगीं..

बोलीं “पहले बहुत मना करती थी और बदले में गालियां, थप्पड़ खाती.. हमेशा यही समझती रही कि शराब सर चढ़ कर बोलती है, आदमी का खुद पर कंट्रोल नहीं रहता.. जो भी हो, प्यार करता है मुझसे और बच्चों से.. बाकी का वक़्त तो सुकून से ही कटता है..

पर एक दिन बच्चों और पति के साथ बरामदे में बैठ कर चाय पी रही थी.. मच्छर उड़ने लगे तो पति इलेक्ट्रिक रैकेट लेकर आए और तड़तड़ मारने लगे.. अचानक जाने क्या सूझी कि एक बार रैकेट मुझे भी मार दिया..”

इनकी बाजू में लोहे की रॉड डली थी, बचपन में कोई major फ्रैक्चर हुआ था.. पति को बखूबी पता था, ये ज़ोर से चिल्लाने लगीं, आंसू झर झर बहने लगे, आखिर करेंट दौड़ा था बांह के लोहे में..

कहने लगीं, मैं चीखने लगी कि यहां मत मारो, बहुत दुखता है.. पर पति के चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान खेल रही थी, “कितना तमाशा कर रही है, ले एक और खा”.. आखिर बच्चों ने ही पिता के हाथ से रैकेट छीना और भाग गए..

मुझसे बोलीं, मैंने उस दिन के बाद से उनको शराब पीने के लिए कभी नहीं टोका.. वो बिना जहर पिए भी जहरीला ही था..

उस दिन बदन में सरसराहट हुई थी, आज फिर ये खबर पढ़कर वही बात याद आई.. क्यों कुछ आदमी इस हद तक गिरे हुए होते हैं कि उन्हें बीवी इंसान नहीं सामान नज़र आती है.. जिसे जब चाहा जहां चाहा पटक दिया.. क्या सचमुच नशे के ही वशीभूत हैं ऐसे पुरुष या फिर उनका पुरुष होना ही सबसे बड़ा नशा है.. पत्नी के शरीर, आत्मा, अस्तित्व को चोट पहुंचाने वाले ये मर्द, क्या किसी भी तरह इंसान कहलाने लायक भी हैं?

और ये न कहिएगा कि अब ऐसा नहीं होता.. ज़रा सा हौसला देकर देखिएगा, आपके आसपास ही किसी औरत का दर्द यूं ही फूट पड़ेगा, जैसे उस दिन वे रोईं थीं मेरे सामने, बावजूद इसके कि घटना को दो साल हो चुके थे.. अनुपमा सरकार

टूटन

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बारिश, नाम ही काफी हुआ करता था.. चेहरे पर मुस्कान और कलम में जान आ जाया करती.. बूंदें धरती पर गिरें, उस से पहले ही दवात में समेट लेती.. मिट्टी की भीनी खुशबू, बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक, झूम लेने का सबब हुआ करती थी..

सदाबहार के पत्ते हवा में खिलखिलाते और मैं आंगन में.. हमारे चेहरे भले अलग हों, पर बूंदें एक सी खिलती थीं दोनों पर.. फिसलने की परवाह नहीं, भीगने की फिक्र नहीं और टूटने का डर भी नहीं.. इन कोमल पत्तियों को मई की बारिश में, सूरज से लोहा लेते देखा है मैंने.. गिलहरी की चोट से, मैना की चोंच से बचते भी देखा है.. वो पड़ोस की बिल्ली रोज़ कूद जाया करती थी आंगन में, सीधे गमले में लैंड करती हुई.. कुछ टहनियां इधर बिदकती कुछ उधर लचकती.. पर न कभी सांस रुकी न आस चुकी.. इन पत्तियों का मुझसे पुराना नाता है, साथ बढ़े हैं हम, अपनी अपनी जान धूप में झोंकते हुए.. और फिर चन्द बूंदों के स्पर्श से लजाते, शरमाते, इठलाते हुए..

पर आज, न आज हालात कुछ और हैं.. बादलों की धमाचौकड़ी अब मुझे भाती नहीं, बिजली की चमक भी नहीं भरमाती.. पानी बरसे, उस से ज़रा पहले रस्सी पर सूखते कपड़े समेट लाती हूं.. उन्हें अनमने ढंग से तह लगा, एक रूखी नज़र पौधों पर डालती हूं.. सदाबहार की हालत भी कुछ मुझ सी ही है.. धूप में पक कर, पत्तियां गोल हो चुकीं.. कलियों का अता पता नहीं.. बिल्ली शायद कल परसों में कभी गमला खोद भी गई, जड़ ऊपर दिखने लगी है..

टकटकी बांध देखती हूं, बादलों का विस्फोट, सूरज की ओट, चटकते रिश्तों की चोट.. और फिर आंखें मूंद अपने संसार में लौट आती हूं.. न अब ये बारिशें मेरी नहीं, सदाबहार कहीं अंदर बहुत अंदर दरक चुकी… अनुपमा सरकार

अजब दौर

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पीली साड़ी वाली और नीली ड्रेस वाली.. फोटोज़, विडियोज़, न्यूज़, इंटरव्यूज़.. किसी भुलावे में मत रहिएगा.. यहां पोशाकों के नाम से पुकारे जाने वाली महिलाएं, किसी फिल्म की हीरोइन या रैंप वॉक करती मॉडल्स नहीं हैं.. बल्कि आपकी और मेरी तरह अपनी ड्यूटी करती हुई आम घरों की आम औरतें हैं!

तो फिर क्योंकर हुए ये फोटोज़ वायरल? किसने शूट किए विडियोज़? और किसने बनने दिया इन्हें चटखारे लेते और खींसे निपोरते आदमियों के मोबाइल फोन की गैलरी में शामिल एक और पिक्चर??

क्या एक बार भी आपमें से किसी को ख्याल आया कि कल इन दोनों की जगह आप या आपकी कोई अपनी भी हो सकती हैं.. आखिर अब फोटो और वीडियो बना लेने की सुविधा तो हर पॉकेट में मौजूद है न, मोबाइल के रूप में! हां, शायद उनकी तस्वीरें सिर्फ़ स्टाइलिश होने की बिनाह पर ही शेयर न हों! और एक खूबसूरत महिला, अगर अपने संगी साथियों के साथ मुस्कुरा कर बात करती हुई, नज़र आ भी जाती है, तो क्या ज़रूरत पड़ जाती है उसे सस्ते चैनलों पर खबर बनकर दिखलाने की.. और ये मत कहिएगा कि पीली साड़ी वाली मोहतरमा इंटरव्यू में खुश नज़र आ रहीं थीं.. मुझे बात उनकी नहीं, उन सभी जर्नलिस्ट्स की करनी है जिनके लिए ये मसालेदार ख़बर थी.. और होड़ मचाकर सबसे पहले दिखा दिया जाना ज़रूरी कर्म था.. उन अजब आदमियों की करनी है, जिनके पास ये वॉट्सएप आए और उन्होंने पूरी श्रद्धा से आगे बढ़ाए!

विकृत मानसिकता और उज्जड़ पन का परिचायक लगी मुझे ये हरकत.. हमारे समाज ने घूंघट प्रथा को पीछे बेशक छोड़ दिया हो, पर अफसोस अब भी आप स्त्री को इंसान नहीं समझ पाए, शरीर समझ आंखें ही सेंक रहे हैं, चीज़ समझ कर अपने मोबाइल्स में कैद कर रहे हैं!

मीडिया ही नहीं समाज के मुंह पर तमाचा है ये हरकत.. चुनाव की सरगर्मी में नेताओं से बोर, मुद्दों से परे होते, बेशर्म पत्रकारों की जनता को भुनाने की एक और कोशिश!! अनुपमा सरकार

दिनचर्या

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बारिश की बूंदों का सीमेंट के फर्श और लोहे की बरसाती पर तड़कना.. बादलों का सूरज को आगोश में लेकर हुमकना.. मस्त पेड़ों का झोंकों संग ठुमकना..

आज की सुबह चुलबुली प्रकृति की अंगड़ाई संग शुरु हुई है.. अंधेरे की अभ्यस्त आंखें, आंगन में इठलाती हल्की रोशनी को एकटक निहार रही हैं..

पानी ज़रा सा पड़ा नहीं कि सदाबहार सर उठाकर खड़ा हो चला है.. मैं देख रही हूं, गोल पत्तियों का ज़रा ज़रा कसकना.. कांटों भरे गुलाब के बीचोंबीच चंचल लाल नवांकुरों का मुस्कुराना.. तुलसी का हरियाना.. रात रानी का लजाना.. और वहीं कहीं मोतिये की मादक सुगन्ध संग अंगूर की बेल का निष्ठुर दीवार को आलिंगन बद्घ करना..

नवजीवन की बूंदें, हिलोरे मारती, फिर लौट आई हैं.. मई की तपिश, लू की गरमाईश, गालों पर लाली बन उभरी थी.. अब अधरों पर जल का स्पर्श लावण्य की नई परिभाषा गढ़ रहा है.. पेड़ पौधे, जीव जंतु, मनुष्य पशु, एक दूसरे के परिचायक लग रहे हैं..

बिम्ब नहीं जानती, प्रतिमान नहीं मानती, बस मुग्ध हो देखती हूं, एक पिता का, बेटी की चोटियां गूंथते हुए, ममतामय हो जाना.. एक स्त्री का, सब्जी में छोंक लगाते हुए, कमनीय हो जाना.. एक कुत्ते का किसी अपने की टांग पर लिपट, बालपन में इठलाना.. एक पतंगे का तितली सरीखा फड़फड़ाना.. और सुबह सवेरे जीवन की गतिविधियों को डायरी में अंकित करते हुए, कठिन दिनचर्या का सरल सहज हो जाना.. अनुपमा सरकार


कल रात

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कल रात आंगन में चक्कर लगा रही थी। खरबूजे सा चांद अशोक के ठीक पीछे से झांक रहा था जैसे मुझे न्योता दे रहा हो, आसमान में आने का, धीमे-धीमे बादलों की सीढ़ियों पर पांव रख गुरु को कनखियों से देख, उसकी समझ-बूझ को खुद में बसाने का। कैसा धुला-धुला सा चांद और कैसा ऊबड़-खाबड़ सा आसमां, हिम्मत ही न कर पाई दोनों के बीच जाने की। बस चुपचाप चक्कर काटती रही, खुद से उलझती सुलझती।

यकायक ज़ोरों की गड़गड़ाहट हुई। चौंक कर देखा, चांद नदारद था और आसमां स्याह मखमली!

अचानक लगा चांद किसी मुसीबत में तो नहीं। मुझे उसने पुकारा और मैंने अनदेखा कर डाला। अब फिर कभी न दिखा तो क्या कर पाऊंगी, यूँ ही हमेशा के लिए गायब हो गया तो क्या सह पाऊंगी। मैं भी न, बहुत मतलबी हूँ, सिर्फ अपने लिए जीती हूँ, किसी और का सोच ही नहीं पाती।

सोचते हुए आंसू ढुलकने लगे, और मैं उन्हें कनखियों में छुपाए भीतर भाग आई। चादर सिर तक ओढ़, खुद को आवरण में छुपा, बुलबुलों में खोने का प्रयास करते कब आंख लग गई। पता ही नहीं चला।

सुबह चार बजे कोई हल्के से बुदबुदाया, शायद सूरज जग गया था, बादलों को भगा चांद को छुड़ा लाया था और अब हौले से उसे लोरी सुना प्यार जता रहा था। शर्माया सा चांद उनींदी अंखियों से सूरज को निहार रहा था, उसके कंधों पर सर रख सितारों की दुनिया में खोया सा।

हैरान थी मैं इस जोड़ी को देखकर। कहाँ आग बरसाता अड़ियल सूरज और कहाँ नेह टपकाता मासूम सा चांद! ज़मीन आसमान का न सही, दिन रात का फर्क तो था ही दोनों में। सोचने लगी, क्या सचमुच वो तपता सूरज यूँ शीतल भी होता है। लुकीछिपी सी वो नरमाहट जो बस किसी एक के लिए, वो कहीं अंदर, बहुत गहरे दबाए बैठा है। हाँ, हो भी सकता है। तस्वीर के दो नहीं, कई रूख होते हैं, पिछले कुछ दिनों ने बतलाया था। सो अचरज कैसा। बस, मैंने नज़र भर दोनों को देखा, हल्का सा मुस्काई और पलट कर सो गई।

जब जगी तो सूरज अपने तेज पर था और चांद गायब! बस फर्श पर नमी बाकी थी। बादलों से घमासान युद्ध अपनी निशानियां छोड़े बैठा था। कल रात कुछ तो हुआ था!!अनुपमा सरकार

Game of Thrones Finale

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Peter Dinklage, Emilia Clarke, Kit Harrington , Sophie Turner, Maisie Williams have become household names, owing to one of the longest running TV Shows.

The Game of Thrones, based upon A Song Of Ice and Fire written by George R. R. Martin, is indeed one of the most popular shows, where the fans not only watched but also got involved with the development of characters and tried to guess the direction the storyline would take in future, by coming up with their own theories.

The past nine years, 2010 to 2019, saw the young Stark kids grow up, many characters killed and various plots and subplots intertwine. The fans heaved a sigh of relief on seeing Tyrion Lannister come unharmed from death, doubled over with surprise as the young Daenerys Targareyn transformed into ferocious dragon mother and rejoiced as Jon Snow maintained high ideals even in most adverse conditions.

Yes, the beauty of GOT as it is popularly called, lies in its unpredictable storyline. Here, no character is indispensable and no event is unimaginable.

As for me, I joined the party quite late. I began watching the series only two months back and binge watched on seven seasons at a stretch. But by the time Season 8 began, I had become quite involved with the series. I even went ahead and bought all the books of the series, as I wanted to know more about this fantastical show. However, I put off reading those books till I have finished watching the TV adaptation.

Yesterday, I watched the Game of Thrones finale and was left in an introspective silence. Many fans have complained against the way Season 8 has turned up, largely owing to the ordinary events and lack lustre fighting scenes. To tell you the truth, I am also a bit disappointed as this season lacked the chutzpah of previous seasons for sure. However, I would not blame the creators for taking a more subtle route in the final season.

Despite the outer fantasy like structure, Game of Thrones, had always been more about the human eccentricities and political ideologies. There may have been dragons, white walkers and children of forest, essential elements of fantasy land yet the main story always focused upon how the decisions would be made by mere mortals. There always had been great stress upon how the emotional and moral grounds would be used and abused for personal gains. In short, it had always been about how we live and survive in this world!

And this is what the last season focused on. The evil turned out to be selfish even when the danger of death loomed, while the good ones continued to sacrifice even when they could back out! It’s not only the last episode, but the entire Season 8 followed this line of thought.

Yes, the ending could have been better, the battle scenes could have been more elaborate and of course, the main Characters could have been killed with a little more finesse. The viewers had been waiting for this season with bated breath. Their patience should have been rewarded with more effort and imagination.

And yet here we are, at the end of the final season with the Iron Throne melted, Dragons vanished and even a Kingdom chopped off!

The last episode seemed a bit forced. The creators worked under great duress to perform and tie up all the loose ends. And in an overzealous approach, ended up ceating more theories than practical outcomes. Still I wouldn’t blame them. At times, stories end abruptly and remain memorable. Whereas at other times, the effort to create something greater and more logical, backfires. I believe the producers found themselves on this sticky road. They tried taking one route for earlier seasons and then lost track. In trying to recover, they ended up on another path, which though logical, isn’t really well thought of!

Stil you can either blame Benioff and Weiss for trying to create something different from what George RR Martin has written or praise their ingenuity. The choice is entirely yours.

However one thing is for sure, GOT has stirred enough curiosity in me to dive straight into Winterfell and King’s Landing with Martin and first handedly experience the prophecies and tales, left unattended in the show.

Anyhow Written World is always more elaborate and promising than the Make Believe World. One way or the other I am a happy viewer and a curious reader. Anupama Sarkar

सूरत में हादसा

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सूरत में हुआ हादसा, फिर फिर, ध्यान दिलाता है कि हम अपनी ही जान को लेकर कितने लापरवाह हैं.. चौथी मंज़िल पर जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियां.. सबसे ऊपर एक्स्ट्रा टायर्स का रखा जाना.. और बाहर निकलने का कोई दूसरा सुरक्षित रास्ता न होना..

कितनी बार यही गलतियां दोहराई जायेंगी? बावजूद इसके कि नियम कानून हैं, उन्हें धड़ल्ले से ताक पर रख दिया जाता है.. दोषी शायद पकड़ लिए जाएं, कुछ वक़्त हो हल्ला भी हो, NOC के ऊपर ज़ोर भी दिया जाने लगे.. पर ये सब होगा सिर्फ कुछ वक़्त के लिए, फिर सब पटरी पर वापिस!

वैसे भी, हो चुकने के बाद, विचार विमर्श खोखला लगता है मुझे.. मोबाइल रिकॉर्डिंग करने वालों की संवेदन हीनता, दरअसल इस बात की पुष्टि करती है कि हमारे यहां जान कितनी सस्ती है.. बिल्डिंग में आग लगी हो, दम घुटने, जलने, मरने को अभिशप्त हों इंसान.. और दूसरी तरफ एक बड़ा जमावड़ा लगा हो, तमाशबीनों का, जो किसी भी तरह की मदद तो खैर नहीं ही कर सकता, बल्कि शायद जाम लगाकर, भीड़ जुटाकर रेस्क्यू वर्क को और जटिल ही बनाता है..

ये हादसे, एक नहीं कई ऐंगल्स से देखने, समझने की ज़रूरत है.. बेसिक सिविक सेंस और ईमानदारी की ज़रूरत ज़्यादा है.. सिर्फ नियम कानूनों से क्या होगा? पालन भी तो हो.. अनुपमा सरकार

चर्नोबिल, पहली नज़र में

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1986, रूस का एक शहर, चर्नोबिल, न्यूक्लियर रिएक्टर में विस्फोट.. रंग बिरंगी लपटें.. ब्रिज के दूसरी ओर खड़े होकर, चमकती राख का लुत्फ़ उठाते लोग.. बिना ये जाने बूझे कि रंग रेडिएशन की वजह से है.. वो रेडिएशन जो इतना घातक है कि दो ही दिन में उनकी चमड़ी पिघलाकर, नसों से खून बाहर फिंकवा देगा.. जाने कितने ही लोग घायल हुए, कितने ही मर गए, आग से नहीं, धुएं से नहीं, अपनी और प्रशासन की बेवकूफी से!

इतने बड़े हादसे के होने पर भी न्यूक्लियर रिएक्टर हेड का लापरवाह दंभ भरा ऐटिट्यूड, ब्यूरोक्रेट्स और पॉलिटिशियंस का इस घटना को हल्के में लेना.. सिर्फ अपनी साख बचाने के आतुर लोगों का, आंखों देखी हकीकत को पहचान ने से इंकार करना..

जानते हैं, चेर्नोबिल हादसे को 33 साल बीत चुके, पर आज भी ये सिरीज़ देखते हुए, मैं रिलेट कर पा रही हूं.. हमारे देश और समाज में होने वाली हर छोटी बड़ी घटना में बिल्कुल यही लापरवाह अंदाज़ नज़र आता है.. सूरत के जलते बच्चे हों, रावण दहन में रेल से कटते लोग हों या दिल्ली के दम घोंटू वातावरण के कारण और विक्टिम बनने वाले लोग हों, सब घूम रहा है नज़रों के सामने.. जबकि मांस के लोथड़ों में तब्दील होते लोग टीवी पर देखती हुई, अचकचा रही हूं! अफसोस Chernobyl सिर्फ एक देश नहीं, एक शहर नहीं, हर जगह की कहानी है.. एक दुखद सच.. अनुपमा सरकार

चाह, अध्याय 1

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एक छोटी सी कहानी लिखनी शुरु की है, देखिए कहां तक जाती है 🙂 एक आम आदमी के अंदर के घटियापन को बाहर लाती ये कहानी, आपको भी किसी न किसी का ध्यान तो दिलाएगी.. अगर आपको पसंद आए और कुछ कहना चाहें तो बताइएगा ज़रूर.. आपके सुझाव मेरे लिए बहुमूल्य हैं.. पेश है पहला अध्याय

शब्दों को तोड़ने मरोड़ने की कला आती थी उसे। कभी यूं ही बुरे वक़्त को झेलने के लिए, कलम काग़ज़ पर दौड़ाई थी, बस साथ चिपक गई। पर विनय का ये कौशल उसके घरवालों को मालूम न था। उनके लिए तो विनय धीर, गम्भीर, कम बोलने वाला, बिज़नेस में ध्यान देने वाला 45 साल का वो व्यक्ति था, जिसके पास एक अदद बीवी, बेटा बेटी, दोमंजिला घर और घर के बाहर गाड़ी थी। आम से शहर में जीने के लिए इस से ज़्यादा चाहिए भी क्या!

अरे नहीं, यहीं तो गलत हैं आप। इंसानी फितरत कि जितना हो, पूरा नहीं पड़ता। विनय को भी पूजा से मिलता देह सुख अधूरा ही लगता था। रात के अंधेरे में पत्नी धर्म निभाकर दूसरी करवट लेटी पूजा, उसे ज़रा अच्छी न लगती। पलट जाता, लेटे लेटे ही मोबाइल में कुछ न कुछ ढूंढने लगता। नहीं जानता था कि क्या चाहिए पर इंटरनेट के होते कमी भी क्या। स्क्रीन रोल करते करते सारी रात बिताई जा सकती थी। खूबसूरत चेहरे, अनोखे दृश्य आम थे। पर विनय की भूख इनसे न मिटती। उसे कुछ और चाहिए था, कुछ ऐसा जो उसे प्रेमी होने का अहसास दिलाए, सिर्फ दैहिक नहीं, मानसिक भी। पूजा के साथ होने पर भी, जिसके नाम और शक्ल को कल्पना में वो चूम सकता था, बाहों में बाहें डाल बाग में घूमने का फिल्मी सीन इमेजिन कर सकता था।

ये बातें विनय के दिमाग में घर करने लगीं थीं। उसकी उत्कंठा बढ़ती चली जाती थी, उत्सुक था वो कुछ नया, कुछ रिस्की करने के लिए। पर उसे अपनी इज़्ज़त से समझौता मंज़ूर न था। समाज में उसे बेदाग जीवन जीना था, पर किसी औरत की ज़िन्दगी का अहम हिस्सा भी बनना था.. अनुपमा सरकार

चाह, अध्याय 2

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चाह, अध्याय 2

एक रात विनय यूं ही नेट पर सर्च कर रहा था, सामने कुछ लव कोट्स आए, पढ़े, अच्छे लगे.. वो और खोजने लगा.. प्रेम कविताएं दिखीं, सोशल साइट्स पर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, सब ओर, शब्द ही शब्द। प्रेम के अहसास में डूबे, कहीं सूफियाना तो कहीं रूमानी। वो पढ़ने में मशगूल हो चला.. उसने नोटिस किया कि कुछ ठीकठाक थीं और बाकी रद्दी। पर उन प्रेम कविताओं पर लाइक कमेंट्स की लाइन लगी हुई थी, खूबसूरत औरतें लंबी लंबी टिप्पणी के साथ अपनी उपस्थित दर्ज करवाती।

विनय की जगह कोई साधारण समझ बूझ का सही सोच वाला आदमी होता तो इन बातों में कुछ गलत न देखता.. पर विनय तो ठहरा तन का गुलाम। उसके लिए स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु थी। पास बिस्तर पर लेटी पत्नी हो, ऑफिस में बैठने वाली रिसेप्शनिस्ट हो, पड़ोस की छत पर कपड़े सुखाती अधेड़ उम्र की महिला हो या घर में काम करने वाली नौकरानी। उसकी नज़रें और दिमाग तो जिस्म तक ही उलझे थे। एक ही सुख जानता था वो, और उसकी तुष्टि के लिए परदे में रहकर किया जा सकने वाला हर कर्म उसे मंज़ूर था!

फिर यहां तो पूरी पॉसिबिलिटी थी कि वो कुछ भी कहकर, बचा रह सकता था। विनय के दिमाग में प्लानिंग का बीज पड़ चुका था.. अनुपमा सरकार

चाह, अध्याय 3

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अपने नाम से प्रोफ़ाइल बनाने में खतरा था। उसने किसी छद्म नाम से आईडी बनाने की सोची, पर जब दिमाग में गंद खेल दिखा रहा हो तो इंसान सोच भी कितना पाए? उसने सिर खुजलाते हुए ज़रा और ज़ोर डाला.. और अचानक से रोहन का चेहरा उसकी नज़रों के सामने घूम गया! रोहन उसके कैशियर का जवान होता बेटा था। नैन नक्श तीखे, घने बाल, लंबा कद और भोला सा चेहरा.. कल ही तो मिश्रा जी बेटे को नौकरी दिलवाने की गुज़ारिश करके गए थे, बायोडाटा और तस्वीर के साथ!

बस विनय के दिमाग में खतरनाक प्लान घर करने लगा। उसने रोहन के नाम से नकली ईमेल बनाई, फिर एक आईडी खोली, इंस्टा और एफबी पर एक साथ, ताकि जेनुइन लगे। शिक्षा के नाम पर दसवीं पास था विनय, पर शब्दों से खेलना जानता था.. ज़ुबां की लज़्ज़त उसकी खासियत थी, कम बोलता था पर दिल मोहने वाला.. उसने वैसा ही लिखना भी शुरु किया..

“बांसुरी की तान हो तुम, दिल का अरमान हो तुम
कहो तो जीवन हार दूं, सांसों की पहचान हो तुम”

पोस्ट करने के बाद वो पांच सात मिनट फोन की स्क्रीन निहारता रहा, फिर लेट गया.. आसान है लिखना, शब्दों से खेलना.. अब बस पाठक की तलाश थी, न दरअसल पाठिका! मछलियों के लिए जाल बिछा, वो चतुर मछुआरे की मुस्कान होंठों पर सजाए, गहरी नींद में सो गया.. अनुपमा सरकार


बस मेट्रो सफ़र मुफ़्त

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दिल्ली सरकार का एक प्रस्ताव है, बस और मेट्रो में स्त्रियों के लिए मुफ़्त यात्रा का.. इसी विषय में मेरे कुछ विचार

“एक लंबे समय से राखी और भाई दूज पर डीटीसी बसों में स्त्रियों के लिए मुफ्त यात्रा का प्रावधान रहा है.. इसका फ़ायदा यकीन मानिए कि उन्हीं औरतों को सबसे ज़्यादा होता है, जिनके लिए घर से बाहर निकलने का मतलब, फिजूलखर्ची माना जाता है.. आपको बात अटपटी लग रही होगी, पर मैंने नवरात्रों से लेकर दीवाली तक जैसे त्योहारों में आम घरों की औरतों और उनके नन्हे मुन्नों के चेहरे पर मुस्कान दौड़ती देखी है, सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि आज वो एसी बस या मेट्रो जैसी सवारी में सफ़र कर पाएंगें..

आपके, मेरे लिए, शायद ये बात मायने नहीं रखती.. पर घर में रहने वाली, पति की कमाई पर डिपेंड करने वाली और जी तोड़ मेहनत करके थोड़ा सा पैसा कमाने वाली salesgirl से लेकर फैक्ट्री या ऑफिस वर्किंग वुमन के लिए ये बातें बहुत मायने रखती हैं..

टैक्स payers का बहुत पैसा, गलत नीतियों और खराब प्लानिंग के वजह से बरबाद किया जाता है, सिर्फ़ फ्री ट्रैवल पर ही इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत? हां, शायद दिल्ली सरकार, इसे मेट्रो में लागू करवा न पाए क्योंकि आधी ही भागेदारी है.. पर डीटीसी के लिए तो प्रयास किया जा सकता है.. ज़्यादातर राज्यों में टिकट बहुत कम खर्च की होती है और बाहर के कई देशों में सार्वजनिक परिवहन मुफ्त ही होता है.. हमारे यहां भी स्टूडेंट पास, इसी का एक रूप है, जब मैं पढ़ती थी, तब फ्री ही बनते थे.. सीनियर सिटीजन के लिए भी रियायती पास इश्यू होना इसी का एक और रूप है..

सिर्फ चुनाव के चक्कर में इस बात के लोंग टर्म इफेक्ट को अनदेखा नहीं किया जा सकता.. शुरुआत औरतों से की जा रही है, भविष्य में दिल्ली में सभी के लिए परिवहन, स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं फ्री ही की जाएं, तो बेहतर होगा..

पर, हां, इसके लिए एक ज़रूरत सब पर समान टैक्स लगाने की भी है.. हर नागरिक के लिए एक परसेंटेज फिक्स की जाए, दर कम हो, पर सब दें.. सरकारी नौकरी में आज peon भी टैक्स देता है, बेहतर हो कि इसे प्राइवेट नौकरियों और दुकानदारों पर भी लागू किया जाए.. सारी वसूली एक ही क्लास से मत कीजिए और न ही सारी सुविधाएं एक ही क्लास को दीजिए..

साथ ही सरकार प्राइवेटाइजेशन के बजाय गवर्नमेंट जॉब्स की संख्या में बढ़ोतरी करे.. अच्छा रोज़गार दीजिए, सुविधाए दीजिए, लोगों को बेहतर ज़िंदगी जीने का अधिकार है, कोई कब तक पैसे पैसे बचाते ज़िंदगी काटेगा.. एक साथ सबका विकास कीजिए, सही प्लानिंग की ज़रूरत है बस, रिसोर्सेज की कमी नहीं.. अनुपमा सरकार”

गिरीश कर्नाड, श्रद्धांजलि

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लगभग 18 साल पहले एक नाटक पढ़ा था “तुगलक”..

एम ए इंग्लिश कोर्स का हिस्सा था.. पोस्ट ग्रेजुएशन कर ही इसलिए रही थी ताकि इस विज्ञान के विद्यार्थी रहे दिमाग का साहित्य से परिचय हो पाए.. कमला दास, nissim ezekiel, मुल्क राज आंनद और गिरीश कर्नाड.. मेरे लिए ये सब नाम अनजाने थे, पर फिर भी अपने क्योंकि सब भारतीय थे, इंग्लिश में लिखने कहने समझाने वाले..

हालांकि कर्नाड इकलौते थे, जिन्हें चेहरे से जानती थी.. नाटक पढ़ते हुए उनका चेहरा भी नज़रों के सामने घूमता रहा था.. आखिर वो मेरे लिए पहले एक प्रसिद्ध अभिनेता थे बाद में साहित्यकार.. मालगुडी में स्वामी के अनुशासन पसंद कठोर पिता की भूमिका निभाते गिरीश जी की छवि मेरे बाल मन पर यूं छपी थी, कि तुगलक के शुरुआती पन्नों में मैं उनका वही रूप ढूंढती रही..

पर नहीं, मेरे हाथ में जो किताब थी, वो एक परिपक्व नाटककार की कृति थी, जो बहुत ही आसानी से पाठक को सदियों पुराने भारत में ले जाने में सक्षम थे.. जो पुरजोर तरीके से तब के तानाशाह तुगलक को जनता की नज़र से दिखा सकते थे और वहीं “पागल बादशाह” के मन के कोने भी भेद सकते थे.. धर्म और अर्थ के कई लुके छिपे पहलू स्वत ही मेरे मन में घर कर गए थे, और तब से आज तक मैं राजनैतिक और सामाजिक परिवेश को समझते हुए कहीं न कहीं इस नाटक से प्रभावित हो जाती हूं..

तुगलक पढ़ने के बाद गिरीश कर्नाड के मायने मेरे लिए बदल गए.. वे एक सशक्त विचारक के रूप में दिल में पैठ गए थे.. अभी पढ़ा कि आज सुबह सुबह उनकी मृत्यु हो गई.. 81 वर्ष के कर्नाड.. पद्मश्री, पद्म भूषण और ज्ञानपीठ द्वारा पुरस्कृत गिरीश जी हमारे बीच अब नहीं रहे.. पर उनकी निभाई भूमिकाएं, अभिनेता, विचारक और साहित्यकार के रूप में हमेशा हमारे साथ रहेंगी.. जियो तो बस ऐसे ही.. नमन.. अनुपमा सरकार

Lust or Love

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Women often mistake
Men’s Lust as Love
He praises her beauty
Caresses her tresses
Showers kisses
Each and every action
Screams physical attention
And yet the woman, stupidly
Misunderstands it as Love
She cares, She worries
She dares, She hurries
She is neck deep in love
Her bosom may excite Him
Her lower lips may invite Him
But His Manhood is least of her concerns
She is in another World
Where twinkling of her lover’s eyes
His undivided regard, his loyal care
Matters more much more than
False Promises he doles out
She gets drunk on his words
Fills herself with his World
Oh Woman! You are so gullible
Mistaking Lust as Love!!!
©Anupama Sarkar

तलाक़

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हमारे समाज में पिछले कुछ समय में तलाक़ की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। पर क्या इस बढ़ोतरी का ठीकरा हमें पाश्चात्य संस्कृति पर थोप देना चाहिए या फिर अपने ही समाज में कहीं कुछ ऐसा है, जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है?

आजकल तलाक़ होते हैं क्योंकि अब ज़्यादातर पति पत्नी जिनकी आपस में नही बनती, कानून का सहारा लेकर अलग होने लगे हैं.. पहले समाज में बदनामी के डर से सालों तक कटु रिश्तों को भी झेल लिया जाता था.. अलग होने पर आर्थिक और सामाजिक दिक्कतों को झेलना पड़ता था और सिर्फ इसलिए दमघोंटू रिश्तों में बने रहना एक मज़बूरी थी.. वैसे भी औरतों को इतना दबा कर रखा था कि वे अपने हित की सोच ही नहीं पाती थीं, और पूरी ज़िन्दगी चुप्पी लगाकर बिता देती थीं.. हालांकि पुरुष भी कई बार मानसिक वेदना झेलते हुए भी रिश्ते में बने रहते थे.. तो ऐसा तो नहीं कि अचानक ही पुरुष स्त्री का रिश्ता कटु हुआ है, बहुत कुछ पहले भी होता था.. पर अब चूंकि मामले घर की चारदीवारी में नहीं दबाए जाते तो तलाक़ में बढ़ोतरी दिखनी ही है..

पर ये सिर्फ एक पहलू है, तलाक़ का दूसरा बड़ा कारण निजी रिश्तों में विलुप्त मधुरता है.. बात कड़वी है, पर सच है कि आजकल हम लोग संवेदनहीन होते चले जा रहे हैं, स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े सभी.. कोई किसी की बात सुनना, समझना नहीं चाहता.. कई बार कुछ मामलों में शांत रह पाना, असरदायक होता है.. और वहीं हद से ज़्यादा चुप रह जाना घातक.. दोनों ही पहलुओं पर गौर करने की ज़रूरत है..

पति पत्नी में आपसी सम्मान और सहनशीलता की कमी है.. पहले ये जन्म जन्म का रिश्ता माना जाता था, सो कुछ हद तक सहन किया जाता था.. पर अब हमारे मूल्य वैसे नहीं रहे.. आज सब कुछ dispensable है.. हम काफी हद तक अपनी भावनाओं से कट चुके हैं.. शायद पहले जिन एहसासों को दबाकर रखा गया, वे इतने कुंठित हो चुके कि अब प्रेम, प्रणय, संसर्ग हमारे लिए अपना महत्व खो चुके. use n throw पॉलिसी, कपड़ों, चीज़ों ही नहीं मानवीय रिश्तों के लिए भी इस्तेमाल होने लगी है..

अफसोस कि अब हर जगह समन्वयता का अभाव है और उधर ही ऐसा दिखता है मानो, ऑप्शन्स बहुत हों, “तू नहीं तो और सही” वाली टेंडेंसी, प्रेम को ही गहरा नहीं होने देती.. जब प्रेमी प्रेमिका ही एक दूसरे के प्रति वफादार नहीं दिखते तो ज़ाहिर है कि हमारे अंदर कहीं कुछ तो कमी है.. प्रेम विवाह हो या अरेंज्ड मैरिज, प्रेम सम्बन्धों का विफल होना, जतलाता है कि हम अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार नहीं.. फिर ऐसे में विवाह का चल पाना, जहां रिश्ते भी दूसरों ने बनवाए और समाज की वजह से शादी की गई, मुश्किल तो होगा ही..

तिस पर हमारे यहां शादी को प्रेम सम्बन्ध नहीं सामाजिक व्यवहार और आर्थिक विनिमय अधिक माना जाता है.. लड़का लड़की चुनने से लेकर, विवाह होने तक के दौरान किए गए मोल भाव और एक दूसरे को नीचा दिखाने की टेंडेंसी भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार है, जिसके चलते नींव ही गलत पड़ती है.. कभी कन्या तो कभी वर पक्ष अपने निजी स्वार्थों के चलते पति पत्नी की आपस में बनने नहीं देते.. और जो रिश्ता एक दूसरे का साथ देते हुए निभाना था, प्रतिद्वंदियों की तरह शुरु होता है.. पाखंड और ढोंग की नींव पर मज़बूत इमारत खड़ी हो भी कैसे! तिस पर ईगो और सेलफिश होना तो हमारी प्रवृति बनती ही जा रही है.. कारण एक नहीं, अनेक हैं, गहन विश्लेषण मांगता है ये विषय, सिर्फ तलाक़ नहीं रिश्तों को उलट पुलट कर देखने की ज़रूरत है..

तलाक़ केवल रिज़ल्ट है, कारण तो समाज और परिवार के बिखराव में छुपा है! अनुपमा सरकार

मेरा चांद

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“आज तारे नहीं आसमां में!”
“हैं तो”
“कहां, मुझे तो नहीं दिख रहे”
“बादलों के आगोश में छिपे हैं”
वो पलटकर देखती तो उसकी आंखों की चमक के सामने सितारों का जहां फीका नज़र आता.. पर लड़की की नज़र तो स्याह आसमां में उलझी थी..
कुछ पल ठहर बोली “चांद भी नहीं दिख रहा!”
लड़का ज़रा करीब आया, हौले से बुदबुदाया “मुझे तो अपना चांद दिख रहा है, तुम्हारी तुम जानो!”
उमस भरे मौसम में अब हवा खिलखिला रही थी.. अनुपमा सरकार

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