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दुख का नमक, कविता

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प्रेम अविरल धारा है… ऐसा कोमल अहसास, जो कठोर हृदय को मोम सा पिघला दे… जब प्रेम भाव उमड़े तो स्त्री गुण ही हावी होते हैं मन में… पुरुष भी प्रेम में उतना ही संवेदनशील और कोमल हो उठता है,जितनी कि नारी… तो फिर स्त्री मन तो पहले ही इतना नाज़ुक है, उसका पिघलना कहां कोई अतिशयोक्ति… पर इस बात का एक दूसरा पहलू भी है… कमल की सुंदरता अधिक मोहती है क्योंकि वो कीचड़ में खिल उठता है… स्त्री मन भी वही, कहीं न कहीं बेहद मज़बूत और ज़िद्दी, विपरीत परिस्थितियों में भी अपने चरित्र पर अडिग रहने वाला…

इन्हीं भावों को समेटती आज की कविता “दुख का नमक” मेरे शब्द मेरे साथ पर

इस कविता के बारे में संतोष पटेल जी कहते हैं:

“छायावाद के प्रमुख स्तम्भ जयशंकर प्रसाद के लेख ‘काव्यकला’ में अनुभूति का अर्थ आत्मानुभूति माना गया है जो चिन्मयी धारा से जुड़कर किंचित रहस्यमयी हो जाती है। वही नंददुलारे वाजपेयी आत्मानुभूति को साहित्य का प्रयोजन मानते हैं।

काव्य के संदर्भ में काव्यानुभूति, रसानुभूति, भावानुभूति सौन्दर्यानुभूति का उल्लेख प्रायः समान अर्थ में किया जाता।

‘महादेवी की वेदना’ नामक आलेख में कवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि महादेवी जी का सारा जीवन कर्मठता और आशावाद से ओत प्रोत रहा, उसी प्रकार उनकी वेदना के भीतर भी स्वाभिमान की चिंगारी और शूरता की आग चमकती है।

अनुपमा सरकार की कविता ‘दुख का नमक’ स्त्री मन की अभिव्यक्ति है जिसमें वेदना है, सम्वेदना और स्त्रियों की वास्तविक स्थिति को उल्लेखित किया गया है। यह कविता व्यष्ठि से बढ़ते हुए समष्टिगत हो जाती है। बिम्ब का शानदार प्रयोग है लेविस ने तभी तो बिम्ब को शब्द निर्मित चित्र कहा। जिस तरह अनुपमा इस कविता में बिंबों के माध्यम भावनाओं का निर्माण करती है इससे पदार्थों के आंतरिक सादृश्य की अभिव्यक्ति हो जाती है। शोवाल्टर के अनुसार मनोविश्लेशषणात्मक रचना कह सकते है लेकिन एलिसिया आस्ट्रकर की देह बिंबों से सर्वथा भिन्न है।

बहरहाल इस कविता को आप भी सुनिए।जितनी सशक्त रचना उतनी उद्दात प्रस्तुति। धन्यवाद।”

वहीं फाक़िर जय जी का कहना है कि

“सन्तोष जी आप ने सही कहा यह मूलतः छाववादी संस्कारो की कविता है जिसमे बांग्ला भावुकता का असर भी है। स्त्री की स्थिति देने वाली की है। नमक जैसा तिरस्कार समाज से सह कर भी वह समाज को मधुर ही लौटाती है। बिम्बो का बड़ा सुंदर प्रयोग हुआ है। केदारनाथ सिंह की याद आ गई सहसा मृगछौने जैसे कोमल बिम्ब को सुन के। बिम्बो की जो श्रृंखला लेखिका ने पिरोया है वह कविता को कलात्मक सौष्ठव से भर रहा है। सुंदर काव्य आवृति ने बांग्ला काव्य संस्कृति की स्मृति जगा दी। बधाई सरकार जी को।”

दुख का नमक मेरे शब्द मेरे साथ पर उपलब्ध है


उजड़ा चमन

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“ज़माना दिलों की बात करता है, पर मुहब्बत आज भी चेहरों से शुरु होती है”

“उजड़ा चमन” का ये डायलॉग सुनने में शायद घिसा पिटा लगे पर सच्चा है… गंजे हीरो और मोटी हीरोइन को लेकर बनी ये फिल्म शायद सिर्फ cliche लगे… पर ये कहानी सच्ची लगती है, कहीं न कहीं हम सबसे जुड़ी…

आख़िर होता तो यही है न… किसी के प्रेम प्रसंग विवाह से लेकर उसके करियर की उड़ान और सोसायटी में स्टेटस तक हम सब एक दूसरे को जज किए चलते हैं… शारीरिक बनावट, रंग, रूप, चाल ढाल, बोली, पहनावे, खानपान तक को वर्गों में बांटते हैं… इसे समाज की परिपाटी समझ हम सब कहीं न कहीं आंखें मूंद, इन्हीं बाहरी गुणों पर आंकलन करते हैं… आखिर यही देख सुनकर हम बड़े जो हुए हैं… लोगों के बीच रहते हुए, एक दूसरे का मज़ाक बनाना और खुद को मज़ाक बनने से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना हम अनायास ही सीख जाते हैं… और फिर तब तक इसमें कुछ बुरा नहीं देख पाते, जब तक कि हम खुद निशाने पर न हों…

और निशाने पर न आ जाएं, इसकी कोशिश में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते… कोई ताज्जुब नहीं कि एकाध नहीं, बल्कि ज़्यादातर फैसले इसी तर्ज पर लिए जाते हैं कि समाज में हमारा मज़ाक न बने, हम सम्मान के पात्र बने रहें, “नॉर्मल” कहलाएं… चाहे इसके लिए हमें अपनी इच्छाओं को कुचलना पड़े, किसी को नीचा दिखाना पड़े, किसी का दिल तोड़ना पड़े, सब स्वीकार्य है, बस नाक का सही जगह मज़बूती से अकड़े रहना ज़रूरी!

कितनी गज़ब है न ये बात, एक ऐसा अनलिखा नियम, जिसे मानने वाला हर इंसान दबता है, झुकता है, खीजता है और फिर औरों को जबरन उसी नियम से दबा झुका खिजा देखकर, बदले की भावना से ओतप्रोत हो, चैन की सांस लेता है… बहुत कम पल होते हैं, जब आप सचमुच बिना जज किए और हुए, किसी को स्वीकार कर पाते हैं… और शायद यही पल हमारी ज़िन्दगी के सबसे यादगार लम्हों में बदल जाते हैं!

अक्सर लोगों को जो प्यार नहीं मिला, उसके लिए आहें भरते देखा है… जिसके साथ विवाह कर चुके, उसके साथ होने की मजबूरी का बखान भी करते सुना है… और फिर एक झटके में ये कहकर खुद का बचाव करते भी, कि भई शादी वादी ऐसे ही हुआ करती है… मोल तोल ठोंक पीट कर… ये प्यार व्यार सब हवाई बातें! वही हवाई बातें जिनके लिए फिर उम्र भर तरसते हुए कह देना पड़े कि किताबों और फिल्मों में ही होते हैं ड्रीम्स पूरे, काल्पनिक कहानियां जो ठहरी… रियल लाइफ तो बोरिंग ही होती है…

पर जानते हैं, ऐसी ही एक औसत कहानी वाली फिल्म “उजड़ा चमन” दरअसल कहीं न कहीं बहुत सरल सहज ढ़ंग से समझा जाती है कि हमारी असुरक्षा की भावना ही, हमें मन की नहीं करने देती, समाज के बाड़े में बैठे रहने को मजबूर भेड़ बनाए रखती है… कोई हैरानी नहीं कि ऐसा इंसान और कुछ नहीं, बस गांठों का ढेर है… कितनी ही गांठें बचपन जवानी बुढ़ापे में इस मन में चुभती हैं… कदम दर कदम जाने कितनी ही बातें कचोटती हैं… जाने कितनी दफा हम खुद को आईने में देख भाग निकलते हैं… और जाने कितनी ही बार दबाव में आकर वो सब कहते सुनते करते हैं, जिसकी गवाही हमारा दिल कभी नहीं देता… हर मोड़ पर कुछ ऐसे फैसले हमारी प्रतीक्षा करते हैं जहां हमें सिर्फ अपने दिल की सुननी होती है और मन में पड़ी गांठ झट खुल जाती है… बस हम अक्सर हिम्मत ही नहीं कर पाते और एक और चोट, कचोट, गांठ इस तन मन को दे, थोड़ा और अंदर दुबक लेते हैं…

ये बात हर रिश्ते पर लागू होती है… पर चूंकि सबसे आत्मीय और स्वतंत्र सम्बन्ध एक स्त्री और एक पुरुष के बीच स्थापित होता है, ईमानदारी और खुलापन सबसे ज़्यादा ज़रूरी भी इसी रिश्ते के लिए है… एक ऐसा साथी जिसके सामने मन नग्न होने में शर्मिंदा न हो, आपकी गांठों को मोम की तरह पिघला देता है… शायद यही इस सम्बन्ध की सार्थकता भी है…

पर हमारे समाज में होता इसका ठीक उल्टा है… यहां जितनी कुंठा प्रेम और विवाह को लेकर है, शायद ही किसी और रिश्ते में हो… जात धर्म स्टेटस के नाम पर कत्ल हो जाते हैं और दहेज के नाम पर कुर्बानियां… तिस पर शादी में आए मेहमानों से लेकर दोस्तों तक के बीच धोंस बनाए रखने का प्रेशर अलग… लड़की देखने से लेकर बहू की मुंह दिखाई तक में तो बकायदा कमियां ढूंढने की पद्धति रही ही है, पुरुष भी इनके दुष्प्रभावों से बचे नहीं… कद काठी रुतबे पैसे को लेकर उन पर भी उतना ही प्रेशर… और इन सबके बीच पिसता वो कोमल भाव जिसे दो लोगों को महसूस करना था, जीना था… प्रैक्टिकल लाइफ में शहीद होता बेचारा मन और कुंठित होता इंसान… सच्चाई है… कोई कोरी कल्पना नहीं…

लिखने तो फिल्म पर बैठी थी, पर सच कहूं “उजड़ा चमन” में कुछ नया नहीं, पर जो भी है, इन सब ख्यालों को भरसक हवा दे गया… मन हो तो एक बार देखें… सनी सिंह कोई आयुष्मान खुराना या नसरुद्दीन शाह नहीं… न ही ये मूवी दम लगा के हाइशा या स्पर्श के कहीं करीब… फिर भी कुछ है जो ठीक उसी तरह छूता है, जैसे खुराना का मोटी बीवी को लेकर इंसिक्योर होना या नसीर का खुद के अंधे होने की कमी के अहसास की ज़िम्मेदारी शबाना पर डाल देना… फिल्में तो सिर्फ़ कहानियां होती हैं, पर भावनाएं – वो तो इसी मन में हैं न, रियल लाइफ में हमें डिस्टर्ब करती या फिर मोह लेती… उनके होने को स्वीकारना चुनौती भी और सुख भी… अनुपमा सरकार

जवाब

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कितना कुछ है कहने को
पर शब्द नहीं
कितना कुछ है करने को
पर मन नहीं
कितना कुछ अनकहा अबूझा
सुख दुख से परे
जीवन के फेर में
सब सब अटका उलझा
कुछ जवाब सवालों से
ज़्यादा हैरां जो करते हैं… अनुपमा सरकार

हिंदी मूवीज़

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पिछले दो दिन में चार मूवीज़ देखीं… पति पत्नी और वो (कार्तिक आर्यन के खातिर 🙃 हालांकि काफ़ी बोर किया मूवी ने, पर पूरी देख ही ली) …

मोतीचूर चकनाचूर, नवाज़ुद्दीन के कारण देखनी शुरु की थी, पर इतना हमाए तुमाए, हमारे से पचाया नहीं गया, सो छोड़ दी…

स्टूडेंट ऑफ द इयर 2 का पहला सीन ही इतने ज़ोर से धक्का दे गया कि टाइगर श्रॉफ का सपना, मेरे अंदर के दर्शक को डांवाडोल कर गया… ये करण जौहर सिर्फ़ नाम से ही पैसा वसूल कर लेता है क्या 🙄

फाइनली देखी मर्दानी 2… चारों में से इकलौती मूवी, जिसने बांधे रखा… कहानी नई नहीं, सस्पेंस भी ख़ास नहीं… पर रानी मुखर्जी की पॉवरफुल प्रेसेंस ज़रूर छाप छोड़ गई… अजय देवगन फिल्मी दुनिया के सबसे सशक्त पुलिस वाले लगते हैं मुझे… रानी उनके मुकाबले तो ख़ैर कहीं नहीं… पर इसके बावजूद उनका निभाया किरदार असलियत के करीब लगा और कहानी से जस्टिस करता हुआ…

लेटे लेटे बोरियत से बचना चाहती थी और महसूस किया कि मूवीज़ में कहानी, कलाकार, अभिनय, निर्देशन में से कभी कभी सिर्फ एक भी सही से काम कर जाए, तो टाइम पास लायक फिल्म तो बन ही जाती है… पर अफ़सोस ये एक भी मुश्किल से चार में से एक में मिला 😁 अनुपमा सरकार

रंग

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आज ऑफिस से पैदल ही घर आयी… बहुत सालों में शायद पहली बार छोटी होली पर भी अकेले निकलने और पैदल चलने की हिम्मत जुटाई थी… हालांकि आधे रास्ते आते आते, अपना फैसला गलत लगने लगा… एक कॉलेज आता है रास्ते में और पार्क भी… दोनों ही जगह लड़कों के ग्रुप्स लाल, नीले, गुलाबी, बैंगनी रंगे हुए…

एक पल को ये भीड़ देखकर मन घबराया पर दूसरे ही पल उनकी मासूम हंसी मन मोह गई… सब के सब आपस में गलबहियां करते, मस्ती मारते दिख रहे थे… खूब उत्साह, उमंग, ख़ुशी से सराबोर… एक ग्रुप तो बाकायदा रंग बिरंगी पेपर कैप्स लेकर आया था… उनमें से कोई भी मुझे आसपास चलते लोगों, लड़कियों, बच्चों को परेशान करता नहीं दिखा… उनका सारा हुड़दंग अपने दोस्तों तक ही सीमित था, स्वैच्छिक था…

रंगे पुते चेहरों पर टोपियां पहनकर, खिलखिलाते हुए सेल्फीज़ लेते ये स्कूल कॉलेज के लड़के, होली का एक ऐसा चेहरा हैं, जो हम सब होना चाहेगें… हंसते मुस्कुराते जीवंत… जिन्हें छोटी छोटी बातों में खुलकर जीना आता है और बड़े बड़े सपनों को साकार करने के लिए डटकर पढ़ना और मेहनत करना भी…

जानते हैं, रंग बेहद प्यारे हैं… अबीर गुलाल लगाना या एक दूजे पर पिचकारी से पानी की बौछार कर देना, कहीं से भी ग़लत नहीं… पर सिर्फ़ तब तक जब तक, आप जिनके साथ खेल रहे हैं, वे भी आपके इस खेल में ख़ुशी ख़ुशी शामिल होना चाहते हों… ज़बरदस्ती किसी के मुंह पर परमानेंट या केमिकल क्लर पोत देना या कीचड़ गंदगी का इस्तेमाल करना… आते जाते हुओं पर गुब्बारे मारना, बाल्टी भर भर पानी उड़ेल देना, केवल फूहड़ता है… प्यार हो या त्योहार, मस्ती हो या ख़ुशी, दूसरे की हां या ना बहुत मायने रखती है, ये बात हमें बतौर समाज अब सीखनी और सिखानी होगी…

जो उल्लास मैंने उन बच्चों में महसूस किया, सकारात्मक था… लगा दिल्ली में तहज़ीब है, मन प्रसन्न था…

हालांकि कुछ ही दूरी पर ये भ्रम टूट गया… पास ही की कॉलोनी में छत पर छुप कर बैठे दादा दादी के साथ लाडले पोते पोती का हर आने जाने वालों पर गुब्बारे मारने का नज़ारा अब मेरे सामने था… मेरे देखते देखते दो बार गुब्बारे फेंके गए, निशाना दोनों बार चूका… गुजरने वाले ने आंखें तरेर कर उन दोनों बच्चों को देखा… अंदर की ओर भागते बच्चे, दादी से और भरे गुब्बारे लेकर फिर निशाना साधने की प्रैक्टिस में जुट गए…

बच्चे तो शायद नहीं समझते कि यूं ऊंचाई से पानी भरे गुब्बारे किसी पर मारना चोट का सबब बन सकता है… पर उनके साथ बैठे बड़े तो इनसे परिचित हैं… बच्चों से कहीं ज़्यादा, साथ बैठे दादा दादी का मौन समर्थन, मन में मरोड़ दे गया… इन मासूम बच्चों के खेल में साथ देते बुज़ुर्ग, ज़रा सी संवेदनशीलता भी सीखा देते, तो शायद कहीं बेहतर होता… अपनी सीमाओं और दूसरों की इच्छाओं का सम्मान करने का गुण आखिर परिवार से ही तो आएगा न… वरना करते रहिए कितने ही गुब्बारे पटाखे बैन… कहीं न कहीं कोई न कोई यूं ही औरों को बिना मर्ज़ी खेल का शिकार बनाएगा और होली जैसे प्यारे त्योहार को बदमाशी और बदतमीज़ी का लाइसेंस देता नज़र आएगा… अनुपमा सरकार
#रंग

Section 375, Movie

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Section 375, कानून की वह धारा, जिसे लेकर हमारा समाज जाने कितनी बार कोर्ट रूम से लेकर मीडिया तक, खबरों में रहता है… बलात्कार, एक ऐसा कड़वा खौफ़नाक सच, जिसमें विक्टिम के साथ न्याय होने में सालों खर्च होते हैं और तब भी अक्सर जजमेंट और ट्रायल के दौरान केस या तो दम तोड़ देता है या फिर लड़की और उसका परिवार हिम्मत छोड़ देते हैं… अक्सर रेपिस्ट कानून की लंबी और मुश्किल प्रकिया का फायदा उठा कर बरी होने में या विक्टिम को धमकाने में कामयाब हो जाता है…

क्या कहेंगे इसे, कानून का कमज़ोर नाकारा होना, समाज का एकपक्षी होना, लड़की की इज़्ज़त को उसके शरीर तक सीमित कर देना या आदमी के दंभ का हर वक़्त उस पर हावी होना? नहीं जानती, पर हां, दिल अक्सर कांप उठता है… आंसू, भावनाएं सब एकतरफा हो जाती हैं… और मन वितृष्णा से भर उठता है, जब बलात्कारी को पैसे, रुतबे और हाई प्रोफाइल लॉयर्स के बलबूते कानून को तोड़ते मरोड़ते देखती हूं…

आख़िर इंसान हूं, एहसासों की महत्ता है… इसलिए लूप होल्स ढूंढते वकील, ढिलाई बरतते जज बहुत बुरे लगते हैं… मन होता है कि जल्द से जल्द कड़ी से कड़ी सज़ा मिले…

पर क्या कानून के बाशिंदे भी इसी तरह भावनाओं का हाथ थामे निर्णय लिया करते हैं या उन्हें ऐसा करना चाहिए? क्या कानून की धाराओं का अक्षरशः अनुकरण आवश्यक है? क्या सुबूत की कमी किसी केस के हारने या जीतने का आधार बननी चाहिए? क्या पहली नज़र में जो दिखे, समझ आए, वही पूरा सच हुआ करता है? या फिर परतों में दबे कुचले सच को ढूंढना असम्भव हुआ करता है?

सवाल बहुत हैं, जवाब नहीं… अभी मूवी देखी Section 375… अंत तक आते आते कहानी पलट गई, बावजूद इसके कि बुरा इंसान बुरा ही रहा, पर फिर भी कहीं एक छोटा सा झटका लगा…

कानूनी दांव पेंच देखने सुनने के शौकीन हों तो अक्षय खन्ना, ऋचा चड्डा की ये कोर्ट रूम ड्रामा, आपको भी बांधे रखेगी… और कहीं न कहीं, एक बार हिला देगी कि क्या वाकई हम किसी एक पक्ष पर पूरी तरह से सहमत हो सकते हैं? अभिनय और डायलॉग डिलीवरी औसत है, स्टार कास्ट न के बराबर, पर मूवी इंटरस्टिंग है… एक अलग ही पर्सपेक्टिव को सामने लाती हुई… आज के मीडिया ट्रायल का जुडिशरी पर ही नहीं, हम सब के रिएक्शंस पर भी प्रभाव तो है, ये बात इस मूवी में सशक्त तरीके से उभरती है…

कानून अंधा होता है, अक्सर सुना… पर उसकी लाठी पकड़े वकील, अपनी अपनी काबिलियत और सोच के बल पर ही दूर तक चलते हैं, ये आज महसूस हुआ… अनुपमा सरकार

ओलावृष्टि

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1 घंटे तक बारिश और बीच बीच में ओले गिरे… धरती को सफ़ेद होते देखने का रोमांच ही अलग है… पर इस बेमौसम की बारिश पर मन झूमता नहीं… नाज़ुक पितुनिया खिले थे… सब टूट गए… अभी मेड अफ़सोस जता रही थी, “दीदी इत्ते सारे गमले के पीछे से उठा के लाई हूं, सब बरबाद हो गए”

साथ ही उसे अपनी गेंहू की खड़ी फसल की चिंता भी होने लगी… मैंने पूछा, अभी फिलहाल काट नहीं सकते… बोली, “गांव में हफ़्ते से रोज़ बादल घिरते हैं… कल ही मां ने बताया कि भाई भाभी आलू खोद लाए हैं, कि कुछ तो बचे, गेंहू तो इतनी जल्दी कटने से रही”

उसकी बातें सुनते हुए मैं पूरी गम्भीरता से वैदर, इकॉनमी और इमोशंस का कनेक्शन स्थापित करने में जुटी थी… तभी वो बोली, “दीदी मालूम! 29 अप्रैल को धरती पलट जाएगी”

मैंने उसे विस्मय से देखा… वो अपनी रौ में बोलती रही “उनके मोबाइल पर मैसेज आया था, आज बारिश ओले का, तब मैं न मानी थी… पर देखो न धूप में भी ओले गिर गए… अब तो भगवान जी से प्रार्थना करो कि 29 वाला सच न होय!”

टेक्नोलॉजी और इमोशंस का नया कनेक्शन अब सामने था और मैं एकदम चुप…

इस बार कुछ अलग ही है मौसम… और उस पर अफवाहों का कहर भी… कोरोना से लेकर प्रलय तक… जब उसने इतनी सरलता से एक भविष्यवाणी के चलते दूसरे के सच होने की बात कही, तो मैं चुप रह गई… वो सिर्फ़ इतना मानती है कि मोबाइल पर अाई एक बात सच हुई तो दूसरी भी हो सकती है… जबकि एक साइंटिफिक प्रिडिक्शन है और दूसरा सिर्फ़ कयास… टेक्नोलॉजी ने सबके हाथों में ताकत दी है, नकारात्मक सकारात्मक दोनों परिणाम झेलने होंगें… अनुपमा सरकार

कोरोना, जनता कर्फ़्यू

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कुछ भी कहिए, मास्टर स्ट्रोक तो रहा ये जनता कर्फ्यू… हमारे देश में, जहां लोग हर रूल की धज्जियां उड़ाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं… करोड़ों को उनके ही घर की सीमा में बांध देना, आसान नहीं… एक दिन का कहकर घर में बिठाकर, बड़े प्यार से रिहर्सल करवा दिया… साथ ही इनाम के तौर पर तालियां, थालियां, सीटियां, घंटियां, शंख बजवा कर, फ्रस्ट्रेशन भी बाहर निकलवा दी… कम से कम आज के दिन तो बल प्रयोग न के बराबर करना पड़ा… स्वेच्छा से मज़ाक मज़ाक में हो गया सब…

पर अब! अब आगे क्या? घर पर ही बैठना है, आने वाले कई दिनों तक, ये सुनकर और समझकर बहुत लोग परेशान होंगें… आज का दिन बड़ी बड़ी बातों और जोक्स में पास कर लिया गया… आने वाले दिनों में ऐसा होना कठिन… साथ ही उन लाखों मज़दूरों, कामगारों, बेघरों की रोटी, छत, सुरक्षा की भी ज़िम्मेदारी… और बीमारी व संक्रमण तो जो होगा, वो होना ही है…

हम सचमुच खतरे में हैं, शायद ये बात अब भी न हम स्वीकार कर पा रहे हैं और न ही समझ पा रहे हैं… मुश्किल की घड़ी है और हम ज़्यादातर बेसब्र… ऐसे में संयम और संकल्प, जल्द ही स्वैच्छिक नहीं अनिवार्य होंगें… इटली का हाल रोंगटे खड़े करने वाला है… हमारा तो ख़ैर, आम दिनों में भी कुछ ज़्यादा बेहतर नहीं होता… राजनैतिक मतभेदों और नीतियों से कहीं अलग, बस मानवता के नाते, काम करने वाले हर शख़्स के लिए दुआएं… ऑल द बेस्ट इंडिया… उबर जाना… अनुपमा सरकार


यह कदंब का पेड़

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यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “यह कदंब का पेड़” से भला कौन नहीं परिचित! अपने बचपन में पढ़ी सुनी इस कविता को रिकॉर्ड करने की इच्छा बहुत दिनों से मन में थी।

मेरे शब्द मेरे साथ ने मेरे इस सपने को भी साकार किया। परसों ही वीडियो अपलोड किया। मन प्रसन्न हुआ

यह कदंब का पेड़

पर इसके साथ साथ ही मैंने ये भी समझा कि ये कविता यूं ही मेरी फेवरेट नहीं। इसमें बिम्ब से लेकर शब्द संयोजन तक, मात्रा से लेकर मिथक तक, कविता लेखन की हर छोटी बड़ी बात का बखूबी ध्यान रखा गया है। आखिर जबलपुर स्कूल ऑफ पोएट्री की प्रसिद्ध कवयित्री यूं ही तो हम सब की चहेती नहीं। अनुपमा सरकार

ज़रूरी है

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कभी पुरजोर आवाज़ में कहती थी कि ख़बरें देखने सुनने से परहेज़ है मुझे… नकारात्मकता फैलाती हैं… पर अब इस वक़्त, जब नेगेटिविटी, बीमारी और उस से कहीं ज़्यादा मनुष्य की ढकी छुपी स्वार्थी बर्बरता, मुखर हो चली है… मुझे लगता है कि ख़बरें पढ़ना और वर्तमान स्थिति का संज्ञान लेना आवश्यक है…

हां, किसी एक न्यूज़ चैनल या पेपर पर डिपेंड मत करिए… गूगल न्यूज़ पर ख़ुद से खोज कर 3 4 नेशनल इंटरनेशनल agencies/newspapers को पढ़िए… अन्यथा आप भी अनजाने ही एफबी/ट्विटर वॉट्सएप पर वायरल होती अफवाहों, propaganda को ही सच मान बैठेंगें…

सोशल मीडिया पर एक्टिव होने के अलावा हम सब पढ़े लिखे संवेदनशील लोग हैं… सच झूठ साथ साथ चलते हैं… अपनी सोच की छलनी से चीज़ों को परिष्कृत करते चलिए… यकीन मानिए analysis इस वक़्त ज़रूरी है… बस वो एनालिसिस हम अपने स्तर पर करें… वो ज़माना बीत गया, जब पत्रकारिता निष्पक्ष हुआ करती थी, अब सबके अपने पक्ष हैं…

एक पढ़े लिखे इंसान होने के नाते, खुद को सेकंड हैंड नॉलेज की बलि न चढ़वाइए… बिल्ली सामने आ ही गई है, कबूतर की तरह आंखें बन्द करने की बजाय, पंख फैलाकर, आज़ाद होकर सोचने की और निर्णय लेने की ज़रूरत है… बुरे समय में मन विचलित होना स्वाभाविक है, बस जिजीविषा बनी रहे… अनुपमा सरकार

लघुकथा

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लघुकथा एक ऐसी साहित्यिक विधा जिसमें कम से कम शब्दों में पाठक को हतप्रभ कर देना होता है। मंटो की दो पंक्तियों की ये लघुकथा पढ़कर देखिए

उलाहना: “देखो यार। तुमने ब्लैक मार्केट के दाम भी लिए और ऐसा रद्दी पेट्रोल दिया कि एक दुकान भी न जली”

अब ऐसी लघुकथा पढ़कर ज़ाहिर है कि मन में सवाल उठता है कि इस मारक विधा को सीखा कैसे जाए। आखिर क्या और कैसे लिखें। क्या विषय हो, कैसी शब्द सन्योजना हो और किस तरह की प्रस्तुति?

ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब ढूंढते हुए बनाया है ये वीडियो “लघुकथा कैसे लिखें” मेरे शब्द मेरे साथ पर मौजूद है। देखेंगे सुनेंगे तो लगेगा कि मज़ेदार है लिखना।

इसके साथ ही कुछ प्रसिद्ध लेखकों की चुनिंदा लघुकथाएं पढ़कर भी सुनाई हैं अपने वीडियो “लघुकथा” में। ताकि आप उदाहरण के जरिए जान पाएं कि बेहतर और सटीक कैसे लिखा जाए… अनुपमा सरकार

दीवानी

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सुनिए मेरी कविता दीवानी, मेरे शब्द मेरे साथ पर

ये सरसराती सर्द हवा
जब करीब से गुज़रती है
जाने क्यों अपनी सी लगती है
न बहने का खौफ इसे
न थमने से डरती है

ऊपर नीचे आगे पीछे
पंख फैलाए आंखें मीचे
उन्मुक्त गगन में इठलाती है
सबसे जुड़ती सबसे कटती
सांसों में यूं घुलती है

न रूकने का होश इसे
न चलने के मानी है
किश्तों में जीती रेतों से रिश्ते
अजब-गजब मस्तानी है

ये सरसराती सर्द हवा
सच मुझसी ही दीवानी है

It Works

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When you hate yourself and
Want someone else to Love You
It doesn’t work
When you love someone and
Want that person to Love You back
It doesn’t work
When you love yourself and
Want someone else to Love You too
It doesn’t work
When someone loves you
And wants you to fall in love
It still doesn’t work
Whatever permutations combinations be
Love Never Works
Unless two souls choose to work upon it…
Love is a bridge
How much water flows under, doesn’t matter
What matters is the sturdy earth on opposite ends and the flexibility of bridge itself
Something solid to hang on yet something accomodating enough to counter currents
Ditch the bookish mushy love
Real thing is as messy and hard as getting gold from the worthless ore… Anupama Sarkar

दिल्ली और कोरोना

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गाज़ियाबाद के बाद आज नोएडा ने भी दिल्ली के साथ अपने बॉर्डर सील कर दिए, इस आशंका के साथ कि दिल्ली में कोरोना तेज़ी से फैल रहा है और वहां से आने जाने वाले इसे नोएडा गाज़ियाबाद में भी पहुंचा देंगें… सच कहूं, खबर सुनकर झटका लगा… केंद्र में होना, महामारी के केंद्र में भयावह है… हालांकि अब केस कल थोड़े काम हुए हैं और आगे भी शायद तेज़ी से न बढ़ें… पर फिर भी डर तो लग ही रहा है…

दिल्ली देश की राजधानी है, यहां की सुख सुविधाओं और उससे भी ज़्यादा आगे बढ़ने के मौकों के बारे में, लगभग सभी जानते हैं, मानते हैं… नेशनल ही नहीं, एंबेसी और इंटरनेशनल कॉन्टैक्ट्स भी यहीं बनने और भुनाने की प्रबल संभावना है… कहना न होगा, यहां आने की ललक भी लोगों में कम नहीं…

पर इन सबके साथ, लगभग parallel एक ऐसा तबका है, जो गरीब है, मजबूर है, मेहनतकश है और हाशिए पर जीता है… मुख्यमंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंगित किया कि अब दिल्ली में 1 करोड़ लोगों को फ्री फूड दिया जाएगा, आबादी है 2 करोड़… तो सुनकर एक झटका और लगा… आधी आबादी अचानक ही आश्रित होने को मजबूर हो गई… आख़िर एक शहर अपनी आधी आबादी को कैसे और कब तक यूं चला पाएगा!

सुनने में ये आंकड़ा जितना हैरतअंगेज लग रहा है, उतना ही व्यथित भी करता है… साफ़ हो चला है कि दिल्ली में ऑर्गनाइज्ड सेक्टर की भारी कमी है… ज़मीं के हर कोने पर रहते लोग, शायद अब तक चींटियों से लुके छिपे थे, तितर बितर… पर कोरोना के चलते एक ही जगह पर देर तक रहने से दिखने लगे, काउंट किए जाने लगे… शायद इस वक़्त आबादी ही 2 करोड़ से कहीं ज़्यादा हो, आख़िर लॉक डाउन के चलते, जो जहां है, वहीं तो फंस गया… इतनी बड़ी जनसंख्या को, महामारी के ठीक केंद्र में, रखना और बचा ले जाना, धीरे धीरे और मुश्किल होता चलेगा… नेगेटिव नहीं होना चाहती, पर आने वाले वक़्त की मार, अब डराने लगी है…

इन सबके बीच कुछ पॉज़िटिव बातें भी देख सुन रही हूं… शायद संकट, इच्छाशक्ति बढ़ा देता है… लगातार नए उपाय, नए तरीके, सरकार ही नहीं, अब लोकल स्तर पर अपनाए जा रहे हैं… जहां केजरीवाल ने राशन के साथ साथ, तेल, नमक, चीनी, साबुन भी अब फ्री देने का वादा किया है, वहीं हर विधायक और सांसद को फूड कूपन भी दिए कि जिनके पास कोई प्रूफ नहीं, उन्हें बांट दिए जाएं… गुरुद्वारों के लंगर तो चर्चा में हैं ही, कल परसों किसी मन्दिर की भी बात सुनी थी… एनजीओ अपना काम कर रही हैं, और RWAs अपना…

पर इन सबके बावजूद अब लगने लगा है कि दिल्ली को यूं ही अव्यवस्थित नहीं छोड़ा जा सकता… छोटे दुकानदार, दिल्ली की अर्थव्यवस्था और material सप्लाई का एक अभिन्न अंग रहे हैं… इन पर मार बहुत जबरदस्त पड़ी है… पिछले कुछ सालों में malls और ऑनलाइन ऐप्स के चलते, इनकी संख्या में भारी गिरावट आई… ये बात मुझे लॉक डाउन में नज़र अाई क्यूंकि अब इनकी ज़रूरत पड़ी… अब तक तो बड़े आराम से मॉल और अमेज़न के चलते, ज़िंदगी बीत रही थी… पर जैसे ही इन पर ताले लगे, अचानक से ज़िंदगी थमने लगी… लोकल दुकानदार, जो एक समय में जाने कितने ही थे, अब गिने चुने ही बचे… उनकी कैपेबिलिटी से कहीं ज़्यादा होने लगी है डिमांड… घर के छोटे मोटे सामान लेने के लिए भी अब लाइन लगने लगी है…

शायद दिल्ली का ढांचा ही कुछ अलग है… न तो कस्बों जैसा और न ही मॉडर्न टाउनशिप सरीखा… यहां बहुत सारी कैटेगरीज एक साथ सर्वाइव करती हैं… रोज़ खाने कमाने से लेकर, कॉल सेंटर, ऑफिस, कंपनीज़ में काम करने वालों से लेकर कूरियर और डिलीवरी ब्वॉयस तक, इस वक़्त सब एक ही मार झेल रहे हैं… अचानक से सब ठप्प होते जाना, घर में बैठे बैठे बाकी बचे पैसों का हिसाब लगाते हुए, महीने का जुगाड़ बिठाना…

इन्हें जब देख समझ लेती हूं, तो अचानक से आधी आबादी का आश्रित हो जाना, समझ में आने लगता है… कोरोना की मार, फ़िलहाल बीमार और उनके परिजन भुगत रहे हैं, बहुत जल्द ही कोरोना जाए या न जाए, बाक़ी सब भी भुगतने को मजबूर हो जायेंगें… दिल्ली का उजड़ना, बसना इतिहास में बहुत पढ़ा सुना, अब आंखों के सामने घटित होते देखना, कष्टकारी है… हवाई, रेल सेवाओं के बहाल होते ही, यहां क्या मंज़र होगा, सोचकर डर लगता है… फ़िलहाल तो बस यही कि इस महामारी की चपेट से निकलने के बाद भी, पुरानी रफ़्तार पकड़ने में दिल्ली को अभी बहुत देर लगेगी… अनुपमा सरकार

बातें, बाबा नागार्जुन

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बातें / नागार्जुन

बातें–
हँसी में धुली हुईं
सौजन्य चंदन में बसी हुई
बातें–
चितवन में घुली हुईं
व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं
बातें–
उसाँस में झुलसीं
रोष की आँच में तली हुईं
बातें–
चुहल में हुलसीं
नेह–साँचे में ढली हुईं
बातें–
विष की फुहार–सी
बातें–
अमृत की धार–सी
बातें–
मौत की काली डोर–सी
बातें–
जीवन की दूधिया हिलोर–सी
बातें–
अचूक वरदान–सी
बातें–
घृणित नाबदान–सी
बातें–
फलप्रसू, सुशोभन, फल–सी
बातें–
अमंगल विष–गर्भ शूल–सी
बातें–
क्य करूँ मैं इनका?
मान लूँ कैसे इन्हें तिनका?
बातें–
यही अपनी पूंजी¸ यही अपने औज़ार
यही अपने साधन¸ यही अपने हथियार
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
बना लूँ वाहन इन्हें घुटन का, घिन का?
क्या करूँ मैं इनका?
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
स्तुति करूँ रात की, जिक्र न करूँ दिन का?
क्या करूँ मैं इनका?

बाबा नागार्जुन की ये कविता अनूठी है। सहज सरल शब्दों से सीधे दिल में उतरती हुई। आप ये कविता “बातें” youtube channel मेरे शब्द मेरे साथ पर भी सुन सकते हैं, मेरी आवाज़ में।


14 Videos in a Month

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As the Lockdown began, Mere Shabd Mere Saath decided to up its ante and to post more videos regularly. Today, we have successfully posted 14 videos in a month! April 2020 has been a roller coaster month in many aspects, and at least the achievement of Mere Shabd Mere Saath, stands out as the silver lining in dark clouds.

You can subscribe to the Channel by clicking the link below

Mere Shabd Mere Saath

दोस्तों! मनभावन शब्द हों और खिलते सजते भाव, तो मुश्किल वक़्त भी आसानी से गुज़र जाता है। आख़िर लॉक डाउन की मुश्किल घड़ी में सकारात्मकता की ही तो सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। इसी सोच के साथ, अप्रैल महीने में शुरुआत की थी नियमित तौर पर विडियोज़ बनाने और पोस्ट करने की।

लघुकथा कैसे लिखें से लेकर परसाई और मंटो के व्यंग्य से शुरु हुआ ये सफ़र, आप तक लेकर आया , राहत इंदौरी की ग़ज़ल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, गोपाल सिंह नेपाली जैसे दिग्गजों की कविताएं और कुछ मेरी लिखी रचनाएं। कुल मिलाकर अप्रैल के महीने में 14 विडियोज़ “मेरे शब्द मेरे साथ” के पटल पर पोस्ट किए गए। जीवन में खुशियां छोटी छोटी हों तो भी सहेज लेनी चाहिए न!

आप भी कुछ विडियोज़ देखिए, नीचे दिया लिंक क्लिक करके

Recitals

My Favorite Writers

Creative Writing

फिल्में और लेखन

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जानते हैं दोस्तों! मूवीज़ और लेखन का बहुत बहुत गहरा रिश्ता है। दिखने में ज़रूर लगता है कि फिल्में, हीरो हीरोइन के बलबूते चल जाती होंगी। पर दरअसल कसी हुई कहानी, सशक्त स्क्रिप्ट, और मंजे हुए डायरेक्शन के बिना, अच्छी फिल्म बनाना ही असम्भव है। उपन्यास, कहानी में कुछ पन्ने इंप्रेस न कर पाएं तो मन उचाट हो जाता है पर अगर मूवी में खूबसूरत सेट और सुंदर एक्टर्स आपको लुभा न पाएं, तो हम अक्सर कंधे उचका कर बात को जाने देते हैं। कभी कभी ये भी महसूस होता है कि घिसे पिटे विषयों पर बनने वाली फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता बटोरती हैं क्योंकि उनमें मास अपील होती है। जो चंद हटकर फिल्में बनती हैं, वे तो बस कलात्मक दर्शक के लिए ही। उनमें कमाई की संभावना कहां?

पर सच तो ये है दोस्तों कि एक अच्छी फिल्म, किसी भी किताब से ज़्यादा सुकून दे सकती है। बशर्ते, उसके किरदार कुछ ऐसे हों, जो आपके दिलोदिमाग पर छा जाएं। और कहानी अपने ट्रैक पर दौड़ती हुई, किसी भी मोड़ पर आपको धक्का देने में सक्षम हो। डायलॉग्स का चुस्त दुरुस्त होना भी बेहद ज़रूरी। और ये सब हो जाए तो, फिर विजुअल मीडियम ज़्यादा इंप्रेसिव होना ही हुआ।

पर फिर भी हमारे देश में, बॉलीवुड में, फिल्मों की कहानियां समतल ही हैं, उनमें कोई उभार पठार दूर तक नज़र नहीं आता। मसान जैसी कोई इक्का दुक्का मूवी ज़रूर इंप्रेस कर जाती है, पर बाकी सब तो धराशायी ही हैं। कल और आज में दो फिल्में देखीं। पहली “थप्पड़” जो तमाम बातों और दावों के बावजूद, किरदारों, कहानी और डायलॉग्स के स्तर पर बेहद मामूली फिल्म साबित हुई।

और वहीं दूसरी ओर देखी एक कोरियन फिल्म, Parasite, जो अपने सबटाइटल्स के ज़रिए ही मेरा दिल ले गई। हां, और दिमाग पर और ज़्यादा असर किया इस मूवी ने। एकाध धोखेबाज की कौन कहे, इस मूवी में तो माता पिता, बेटा बेटी, चारों ही महा चोर हैं। अपनी बातों में फंसा कर, येन केन प्रकारेन पार्क परिवार में नौकरियां पाते हैं, और फिर…

न न दोस्तों, इसके आगे नहीं बताऊंगी वरना पूरी पोल खुल जाएगी पर लब्बोलुआब ये कि Parasite, बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से इंसानी फितरत की तहें खोलती नज़र आती है। अमीर कितने भोले और गरीब कितने शातिर हो सकते हैं, इसका बड़ा ही दिलचस्प मनोविज्ञान इसमें देखने को मिलता है। लीक से हटकर कहानी लिखी जाए और फिल्म बनाई जाए, तो कुछ इस तरह कि सभी पूर्वाग्रह ध्वंस हों नहीं तो बड़ी बड़ी बातों के बावजूद, characters, caricatures भर रह जाते हैं। और फिल्में सिरे से फ्लॉप।

शब्दों की दीवानी हूं। भावों में बहना भाता है मुझे। फिर वो गीत हो, कविता, कहानी या फिल्म, मीडियम मायने ही कहां रखता है!

आपको भी कभी ऐसा लगा क्या? बताइएगा ☺
अनुपमा सरकार (मेरे शब्द मेरे साथ)

नीरवता

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गहराने लगी है नीरवता
उदासी भी जमने लगी है
मौन, एकांत, अकेलापन
ये शब्द पर्यायवाची हैं या भिन्न
मन को अंतर स्पष्ट करने की
न व्यग्रता शेष न जिज्ञासा
अर्थ का अनर्थ, अंत का होना अनन्त
अब उद्वेलित नहीं करता
प्रकृति के प्रहरी आंदोलित करने में
असक्षम हो चले हैं या मैं ही
अनुभूतियों में कहीं जर्जर हो चली
नहीं जानती, मानती भी नहीं कि
जीवन में अब शेष नहीं कुछ
बस गहराती रात्रि है और वही नीरवता
सजीव, निर्जीव का अंतर भूल
हठीली हो चली हूं
मौन से मौन तक
अपलक अनथक मंथर गति से
अंत को ताकती… अनुपमा सरकार

भीष्म साहनी, अमृतसर आ गया है

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कहानी कैसे लिखें, जानिए अनुपमा सरकार के साथ

किसी भी कहानी में किरदार बहुत अहम होते हैं। वही जान डालते हैं कथानक में। उनके हाव भाव, वेश भूषा, संवाद व भाषा ही माध्यम बनती है, पाठक और लेखक के बीच। एक चतुर लेखक वही जो चरित्र यूं गढ़ दे कि दिमाग में बस जाएं। स्टोरी राइटिंग में कैरेक्टर्स कैसे हों, इसी पर बात करते हुए पेश है, आज की कहानी, भीष्म साहनी की “अमृतसर आ गया है” और आज का शब्द है “झुटपुटा”। अब हर कहानी के वीडियो में एक ऐसा शब्द लेकर अाऊंगी जो थोड़ा कम इस्तेमाल में देखा जाता है। आखिर भाषा समृद्ध न हो तो सृजनात्मक लेखन में जान कैसे आए।

आज की कहानी

भीष्म साहनी
की कहानी
अमृतसर आ गया है

आज का शब्द

झुटपुटा

Learn how to write a story with Anupama Sarkar. In this video, she presents Bhisham Sahni’s famous story “Amritsar Aa Gaya Hai” in her own style. Sahni’s story is a prime example of the importance of characters. Here, the writer has created well rounded characters, by stressing upon different dialects and accents. The division between Hindu, Sikh and Muslims is sensitively portrayed in Amritsar Aa Gaya hai. Bhishma Sahni is an expert writer who has dealt with those difficult times in a psychologically correct manner. Let’s listen to the story and learn how to write a good story in Hindi.

Also, learn a new word every day, which is seldom used in daily conversation but is quite appealing for use in writing.

निर्मल वर्मा, धूप का एक टुकड़ा

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केवल एक पात्र को लेकर कहानी कैसे लिखें, जानिए अनुपमा सरकार के साथ… आज की कहानी है, निर्मल वर्मा की धूप का एक टुकड़ा… इसमें सिर्फ एक ही कैरेक्टर है, कम से कम दिखती बोलती एक ही औरत है… मोनोलोग, एकालाप को अक्सर थियेटर में, नाटकों में प्रयोग किया जाता है… वहां एक किरदार अपने मन की बात कहने के लिए मॉनोलोग या एकालाप का इस्तेमाल करता है… पर मौजूदा कहानी में निर्मल वर्मा, बहुत ही चतुराई से इस एकालाप की तकनीक से पूरी कहानी लिख बैठे हैं… किरदारों की भीड़ नहीं, सेटिंग में कोई बदलाव नहीं, फिर भी कहानी बांध लेती है… कैसे लिखें ऐसी कहानियां, ये जानने के लिए देखते रहिए ये सिरीज़…

और हां, आज का शब्द है “गिरजा”, बहुत ही मामूली शब्द है पर कहीं खो गया है। हम सब बस चर्च ही कहते रह जाते हैं… कभी इस गिरजे को इस्तेमाल करके देखिए, अच्छा लगेगा

Nirmal Varma is known for his experimental storytelling. His narratives and literary techniques leave the readers asking for more. Dhoop ka ek tukda, is one of his most famous stories. Here, he has used the technique of monologue and with only one character, he has managed to create an impressive story.

In this video, Anupama Sarkar presents Nirmal Verma’s story, thereby stressing upon the monologue and one character stage play enacted in here. A series on story writing is ongoing on Mere Shabd Mere Saath. Do watch the previous two videos, where Bhishm Sahni and Manto are present with their unique take.

There are certain hindi words, which are fast disappearing from daily interaction. One such word is Girja, hindi equivalent of Church. Do try to use it once in a while and see the effect it produces in your creative writing.

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