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अन्तिम प्यार, रवीन्द्रनाथ टैगोर

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कला के लिए किस पायदान तक उतरा जा सकता है? क्या निजी भावनाओं का कोई मोल होता भी है किसी कलाकार के लिए? या केवल प्रसिद्धि और येन केन प्रकारेण हर सही गलत, सुख दुख, संवेदना, वेदना को ताक़ पर रखा जा सकता है?

शायद आपको लगे कि किसी हालिया प्रकरण पर लिख रही हूं, किसी न्यूज़ या दो मिनट के बाइट से प्रभावित होकर, क्षुब्ध होकर! नहीं, मैं तो बात कर रही हूं, रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी “अंतिम प्यार” की। नाम अटपटा है, शायद अनुवाद में अर्थ खो गया, अंतिम प्रेम होता तो बेहतर लगता।

ख़ैर, कहानी है नरेंद्र चित्रकार की, जिसे अपनी तूलिका और संवेदना पर गहन विश्वास है। वह स्वयं को बंग – प्रांत का महानतम चित्रकार मानता है और मनवाना चाहता है, ख़ासकर प्रोफ़ेशनल आर्टिस्ट योगेश बाबू की नज़रों में…

यहां तक तो सब सही, पर जब उसे एक प्रदर्शनी में अपनी कला की छाप छोड़ने का मौका मिलता है, तो अचानक उसकी कल्पनाशीलता व सृजनात्मकता छू मंतर हो जाती है। बहुत सिर पटकने के बाद, उसे अपने मास्टर पीस को बनाने की प्रेरणा मिलती है। अपने ही बेटे को हैजे से मरते देखकर, अपनी पत्नी के अस्त व्यस्त शरीर को, वह खिड़की में खड़े होकर निहारता है और डॉक्टर को बुलाने की बजाय, एक अद्भुत कलाकृति का सृजक होने की प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है!

कहना न होगा, मन खिन्न है… अजब सा कसैलेपन महसूस रही हूं। पर इसके साथ साथ बख़ूबी समझ पा रही हूं कि यह दुनिया हमेशा से ऐसी ही थी, संवेदनहीन और स्वार्थी… गुरुदेव ने यह कहानी रच कर, अपने समकालीन ही नहीं, हर युग और काल की सच्चाई से परदा हटाया है। कला और साहित्य, जितना ही भावों पर टिका है, उतना ही अधिक भावहीन भी है, बस वे भावनाएं दूसरों की हों, तो अपने स्वार्थ के लिए कैसे भी तोड़ी मरोड़ी जा सकती हैं… अनुपमा सरकार

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