कहने को तो अभी मार्च ही चल रहा है, पर दिल्ली की गरम सनसनाती हवा और चौंधियाता सूरज, मुझे बचपन की मई जून वाली छुट्टियां याद दिला रहे हैं…लू के थपेड़े, स्कूल से निजात दिलाते और नंदन, चंपक के सुनहरे दिन बरबस चले आते… होमवर्क करने का ख्याल तो मुझे जुलाई से पहले कभी आता ही न था.. बेफिकरी का आलम कुछ यूं कि दिन भर सोने और खाने के सिवा कुछ और न सूझता था..
चिप्स वाले ठन्डे फर्श पर आलथी पालथी मार, हाथ में कॉमिक्स या कोई किताब लिए, मैं अक्सर खीरे टमाटर चबाया करती.. अब सोचकर हैरानी होती है कि इन सब्जियों की कितनी बरकत थी घर में.. फ्रिज खोल, जब चाहूं, जितनी चाहूं, नींबू मसाला लगा लगा, चटखारे लेकर खाती फिरूं…
और नींबू पानी, जिसे हमारे घर में शिकंजी कहा करते थे, उसका तो मज़ा और जुदा.. मम्मी शुगर सिरप शीशियों में भरकर रख देती और हम भाई बहन, अपने स्वादानुसार, नींबू निचोड़ निचोड़, चीनी वाला शर्बत उड़ेल उड़ेल, ठन्डे मीठे पानी का आंनद उठाया करते.. कभी कभी बर्फ भी मिलाई जाती, पर अक्सर आइस जमाने का काम मेरे जिम्मे होता, और मैं ऐसा करना लगभग रोज़ ही भूल जाया करती.. आखिर और इतने काम जो करने होते थे मुझे, सोना, लड़ना, झगड़ना और बातें बनाना
खैर बर्फ की कमी, शाम को आने वाले आइसक्रीम के ठेले पर पूरी हो जाती.. रोज़ का नियम था, एक सॉफ्टी या फिर ऑरेंज/कोला/रोज़ वाली कैंडी.. बाकी बच्चों को अक्सर कप लेते देखती, पर मुझे इतने से क्रार्डबॉर्ड के अंदर चम्मच घुसा घुसा, खाना कभी अपीलिंग नहीं लगा.. मज़ा तो तभी आता था जब आइसक्रीम वाला सॉफ्टी के खोल में, ढेर सारी आइसक्रीम डालकर, नुकीली शेप बनाकर, बाकायदा उस पर चेरी बुरक, पेश करता… ज़ुबां पर पिघलते उस खोए का स्वाद ही कुछ अलग था.. फिरकी की तरह घुमा घुमा, आंनद लेती और फिर तसल्ली से उसका cone चबाया करती… आज भी याद करती हूं तो Baskin Robins भी फीकी लगने लगती है.. शायद यादें होती ही ऐसी हैं.. एक बार जो सिलसिला शुरू हो, तो जाने कितनी बातें खुद ब खुद जुड़ती चली जाएं..
उन दिनों इन्वर्टर का तो नाम भी नहीं सुना था.. लाइट जाती तो लोहे के दरवाज़े पर पानी का छिड़काव कर, मैं उसकी छाया में बैठ जाती.. बाहर जो हवा आग उड़ेलती, वही इन जालियों से टकरा कर, मेरे सुकून का सबब बन जाती.. घंटों इसकी छांव में लूडो, ताश, व्यापार खेली है मैंने… और हां, आटा गूंथना भी एक छोटी सी कटोरी में ज़रा सा आटा और चंद बूंदें पानी मिला, खेल खेल में यहीं सीखा था..
क्या खूबसूरत दिन थे वो.. धीमी गति से चलते, न कहीं जाने की जल्दी, न पहुंचने की चिंता.. मुझे तो टेलीविजन की भी कोई खास ज़रूरत महसूस न होती थी… रात को न्यूज़, रंगोली, चित्रहार याद हैं बस.. हां, रविवार को आने वाले जंगल बुक, गायब आया, हीमैन ज़रूर दिनचर्या का अंग हुआ करते थे… टॉम एंड जेरी और सीरियल्स देखने का चाव तो किशोरावस्था में हुआ.. उस से पहले मेरी दुनिया कॉमिक्स, मैगज़ीन, किताबों और अखबारों के सहारे ही चलती थी..
अख़बार से याद आया.. एक बात बहुत ज़रूरी लगती थी… रोज़ अखबार देखकर तापमान नोट करना.. ये मेरे होमवर्क का एक ऐसा अविस्मरणीय हिस्सा है, जो मैंने लगभग अपने पूरे स्कूली जीवन में झेला.. मुझे कभी कभी टीचर्स की नॉन क्रिएटिव सोच पर गुस्सा भी आता था कि क्या हर साल वही बोरिंग काम थमा देती हैं.. पर फिर भी केवल एक यही काम था, जो मैं छुट्टियां ख़तम होने पर नहीं, बल्कि पूरे दिल से रोज़ किया करती.. एक साथ, कुछ भी फेर बदल कर डाटा भरा जा सकता है, ये बात तो मेरे बाल मन में दूर दूर तक न उभरी..
पर स्कूल क्या छूटा, वो टेंपरेचर देखने का सिलसिला भी कहीं खो गया.. आज की गरम हवाओं ने गुहार लगाई, एक बार फिर से मन हुआ कि अखबार खंगालूं और देखूं कि दिल्ली का तापमान कितना रहा… वही टमाटर, खीरा, नींबू, मसाला, उसी बेफिकरी से खाते हुए, लम्बी तानकर सो जाऊं.. फुर्सत के वो पल यकीनन बहुत खूबसूरत थे..
Anupama Sarkar
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