सोचा था आज सुबह से बहुत बोल चुकी, अब ज़रा दोस्तों को आराम करने दूं.. पर कुछ देर पहले रजनीगंधा देखी.. और अभी अभी Sanjay जी की लिखी रोबोट और इंसान की प्रेम कहानी पढ़ी.. दोनों बातें जुड़ी सी महसूस हुईं, मानो एक्शन और रिएक्शन..
पहले बात करते हैं रजनीगंधा की.. ये मूवी बहुत पहले देखी थी और गाने बहुत भाए थे.. हालांकि हीरोइन महा कन्फ्यूज़्ड लगी थी.. चार दिन में ही, शादी के वादे तोड़कर, पुराने प्रेमी से प्यार दुबारा कर बैठने वाली.. सोचती रह गई थी कि ये कैसा प्यार.. खैर, conclusion आज भी वही.. अब भी मुझे दीपा (विद्या सिन्हा) द्वंद से जूझती ही नज़र आयीं…
पर इस बार फिल्म देखने का मेरा perspective ज़रा जुदा था.. सो पहली बात जो नोटिस की, वो ये कि बासु चटर्जी की ये फिल्म मन्नू भंडारी जी की कहानी “यही सच है” पर आधारित है.. अच्छा लगा कि क्रेडिट में उनका नाम सबसे पहले दिखा.. सुकून मिला
दूसरी बात जो मुझे प्रभावित कर गई, वो है फिल्म का शुरुआती सीन, जिसमें दीपा एक सपना देखती है.. वो ट्रेन में बिल्कुल अकेली है, डर जाती है और स्टेशन आते ही कूद पड़ती है.. पर अब स्टेशन पर उसे कोई नहीं दिखता.. वो चलती ट्रेन के पीछे भागती है, जिसमें अब कितने ही लोग दिखाई दे रहे हैं.. ये एक ब्रिलियंट सीन है, इस स्वप्न के ज़रिए दीपा का कैरेक्टर डिफाइन कर दिया गया.. वह अपनी ज़िंदगी में फैसले नहीं ले पाती.. उसे ऑप्शंस नहीं दिखते या फिर समझ नहीं आते और इसलिए डर के मारे निर्णय लेती है.. और अक्सर गलत साबित हो जाती है..
इसके बाद शुरु होती है उसकी रियल लाइफ, जिसमें वह संजय (अमोल पालेकर) के साथ लॉन्ग टर्म रिलेशनशिप में है.. उसके भैया भाभी को इस रिश्ते से ऐतराज़ भी नहीं.. पर संजय शादी करने में कोई खास इंटरस्टेड नहीं बल्कि वो उन मर्दों में से है, जो सिर्फ और सिर्फ अपनी ज़िंदगी और करियर को तवज्जो देते हैं.. दीपा सिनेमाघर से लेकर कॉफी हाउस और घर तक केवल उसके इंतजार में ही बैठी रहती है.. पर संजय कभी दफ्तर में तो कभी दोस्तों में बिज़ी होने का बहाना करके, लेट होता रहता है.. उसने शादी को अपना प्रमोशन होने तक टाल रखा है, जबकि देखा जाए तो इन दोनों बातों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं.. अब तक उसने अपने घर में शादी की बात तक नहीं की और न ही उसे दीपा के करियर और पढ़ाई को लेकर ही कोई दिलचस्पी है.. इन शॉर्ट, रिश्ता निभाने का पूरा दारोमदार दीपा पर है, संजय सिर्फ पैसिव पार्टनर है…
फिर कहानी में ट्विस्ट आता है, दीपा को मुंबई में नौकरी का ऑफर मिलता है.. वह संजय से इंटरव्यू में साथ चलने की मिन्नतें करती है, बट ही इज़ सुपर बिज़ी.. सो दीपा अकेले ही मुंबई चली आती है और यहां उसकी मुलाकात उसके पुराने प्रेमी नवीन (दिनेश ठाकुर) से होती है.. नवीन ने उस से एक छोटी सी बात को इगो पर लेकर ब्रेक अप कर लिया था.. और अब शायद गिल्ट या फिर पुराने सम्बन्ध के चलते, वह दीपा को बहुत तवज्जो देता है और मदद करता है.. और बस दीपा फिर से उसके प्रेम में पड़ जाती है…
ये बात, मोटे तौर पर देखी जाए तो टेम्पटेशन और लॉयल्टी के बीच की रस्साकशी सी लगेगी पर दरअसल इसके पीछे भावनाओं का चकनाचूर होना और पुराने ज़ख्मों से उबर न पाना छिपा है.. जब आप एक रिश्ते से बाहर आए बिना, दूसरा रिश्ता बनाते हैं, और सोचते हैं कि अब आपको सच्चा प्यार मिल जाएगा, तो बिना सोचे समझे आप अपने साथ और नए साथी के साथ अन्याय कर बैठते हैं.. आप उसमे वही सब खोजने की भूल करते हैं, जो पिछले सम्बन्ध में अधूरा छूट गया था.. और निरन्तर एक द्वंद में जीते हुए, पुराने के लौट आने की उम्मीद में नए साथी के साथ या तो डेस्परेट हो जाते हैं या फिर हद से ज़्यादा केयरलेस.. दोनों ही स्थितियां रिश्तों को तोड़ने का कारण बन जाती हैं… ये बात स्त्री/पुरुष दोनों पर बराबर फिट बैठती है.. दीपा केवल एक रूपक है, आप इसे किसी भी dysfunctional relationship में घटित होता पाएंगें.. और आज के ज़माने में लगभग हर रिश्ते का यही सच है..
हालांकि मूवी का क्लाइमैक्स काफी कंजर्वेटिव लगा मुझे.. शायद 1974 का सच वही हो, पर आज के ज़माने में दीपा न तो किसी egoist नवीन का इंतजार करेगी और न ही संवेदनहीन संजय से रिश्ते में रहेगी, वह भी शायद कोई नया ऑप्शन ढूंढेगी या फिर सब छोड़कर केवल अपने करियर पर फोकस…
और यहां से शुरु होती है Sanjay जी की रोबोट और इंसान वाली कहानी.. इस कहानी में आकाश, एक सुपर वुमन सोफिया, जो कि रोबोट है, से अपनी पत्नी नीला को compare कर रहा है.. गौर तलब कि रोबोट में इमोशंस को समझने का हुनर आ चुका है और वह आकाश के मन की बात, नीला से कहीं बेहतर तरीके से समझ पा रही है
आकाश की अपेक्षाएं बहुत छोटी छोटी हैं पर पूरी नहीं होती.. वह चाहता है कि नीला उसके लिए खाना बनाए, उस से प्यार और सम्मान से पेश आए, रिश्तों में सहमति असहमति और संवाद बनाए रखे.. इन शॉर्ट, वही सब, जो कि सालों से हर पत्नी अपने पति को देते अाई है और उपेक्षा का शिकार होती रही है… अब चूंकि औरतें भी आदमियों की ही तरह बाहर काम कर रही हैं और अपनी ज़िंदगी पर फोकस करने लगी हैं, आकाश की तरह ही बहुत से आदमी पत्नी के रूप में एक दोस्त और मां को मिस कर रहे हैं.. और शायद बिल्कुल वही फील कर रहे हैं जो कि 1974 की दीपा ने महसूस किया होगा ..
वक़्त अजब है और रिश्तों की ये करवट बहुत दुखदाई.. काश! समवेदनाएं समय रहते ही समझ आ जाएं… वरना रिश्तों का भविष्य 180 डिग्री पर घूमकर भी, उसी कश्मकश में उलझा रहेगा….
Anupama Sarkar