पक्ष विपक्ष तर्क वितर्क के तराजू में
भाव हल्के पड़ते जाते हैं
जर्जर होते तन और क्षीण पड़ते मन के
उद्गार कंठ में सिमटे रह जाते हैं
मंथर बुद्धि क्षिथिल धड़कन
कांपते हाथ फिसलते पांव
बढ़ती आयु के ही परिचायक नहीं
कहीं भीतर, गहरे, बहुत गहरे
रिसते घावों की टीस भी छुपाए बैठे हैं
बीते वक्त के साथ सुर ताल बिठाता मन
नियति को स्वीकारना चाहता है पर मानता नहीं
नैसर्गिक सौंदर्य को आत्मसात करता तन
उल्लासित हो चहकना चाहता है पर गाता नहीं
मौन की नीरवता को भंग करना
गहरे धंस चुके प्रमाद के बस की बात नहीं…..
Anupama Sarkar